शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

हिन्दू राज्य की ओर


मेरे मन में हिंदू राष्ट्र बनाने का एक स्पष्ट प्रारूप बना है। सबसे पहले तो हमे यह तय करना होगा हम किस प्रकार का हिंदू राष्ट्र चाहते है।
      निश्चित रूप से एक ऐसा राज्य जिसमें सनातन धर्म को सरकारी धर्म की मान्यता प्राप्त हो। वह राज्य हिंदू धर्म के विकास, एवं संवर्धन  में सहयोग करें। आज की स्थिती यह है कि राजा धर्म के मामले में हस्तक्षेप ही नहीं करना चाहता। सारा कार्यभार पोंगा-पंडितो पर छोड़ दिया है, जिससे समाज उन्नति के बजाय अवनति की और बढ़ रहा है। धर्म में राजा का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है जो पिछले 800 साल से नहीं है, और यही हमारी धर्म का अवनति का मुख्य कारण है लेकिन ऐसा भी नहीं कि राजा ही धर्म का सर्वे सर्वा हो। हमारी समाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था ऐसी है कि राजनैतिक गुलामी के बावजूद इसमें धर्म का संचार निरंतर होता रहा और समय-समय पर धर्म की अलख जगाने वाले महापुरुष जन्म लेते रहे। और यही कारण है कि इतने लंबे समय तक थपेड़े खाने के बावजूद हमारी संस्कृति जिन्दा रही। लेकिन इसको उन्नति के पथ पर अग्रसर करने के लिए धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग राज्य व्यवस्था को लागु करना ही चाहिए।
       राजा का कर्तव्य होता है कि वह धर्म की रक्षा और अधर्म के विनास के लिए अग्रसर हो, इसके अनुसार वह योग्य एवं धार्मिक व्यक्तियों को अपने राज्य में उचित सम्मान दे तथा अधर्मियों को उचित दंड भी दे। लेकिन यह व्यवस्था समाज के सर्वे सर्वा तथाकथित ब्राम्हणों के हाथों में आने पर जन्मना जाति व्यवस्था का कुत्सित रूप धारण करती गई और इस प्रकार के श्लोक भी रचे जाने लगे कि अगर कोई ब्राम्हण चोर, बदमास, लुटेरा, व्यभिचारी भी हो तो उसे पूजना चाहिए लेकिन अगर कोई शुद्र ज्ञानवान, चरित्रवान भी हो तो उसका तिरस्कार करना चाहिए।
पूजिय विप्र शील गुण हीना,
शूद्र ना गण गुण ज्ञान प्रविना।
                    (राम चरित मानस)
यहाँ मैं तुलसीदास की आलोचना नहीं करना चाहूँगा और उनके द्वारा किए गए महान कार्य के प्रति कृतज्ञ भी हूँ लेकिन फिर भी यह चौपाई उस समय की समाजिक मानसिकता को ही दर्शाता है. क्या यह विवेक के कसौटी पर खरी उतरती है। चूँकि शासन विधर्मियों के हाथ में था और वे सभी हिंदुओ को समान रूप से प्रताड़ित करते थे, अतः धर्म के मामले में तो उनका हस्तक्षेप समाज के लिए पूरी तरह अस्वीकार्य ही था, उस स्थिति में समाज ने तथाकथित ब्राम्हणों पर ही विश्वास किया, और उनलोगों ने भी जी भर कर इसका फायदा उठाया। ऐसा नहीं है कि उस समय अच्छे ब्राम्हण नहीं थे लेकिन समाज में अच्छे लोगो की संख्या प्रायः कम ही रहती है और उस समय अपना उचित राज्य व्यवस्था नहीं होने के कारण अच्छे लोगो को बहुमत के बल पर दबाना भी कोई मुश्किल कार्य नहीं होगा, वास्तव में यही पर जरूरत  पड़ती है एक धर्म आधारित राज्य व्यवस्था के स्थापना की, क्योंकि एक राजा ही अपने दंड शक्ति के बल पर अधर्म को रोक सकता है और उस समय अपना कोई धार्मिक राजा होता तो हमारे समाज में प्रचलित कुरूतियो को तथा धार्मिको के दबाने के प्रयत्न को जरुर रोकता,  विद्वान ब्राह्मण को धर्म की उन्नति करने के प्रयास में सहायता करता एवं अधर्मियों को उचित सबक सिखाता। लेकिन जो कहीं बचे  भी थे वे सब स्वार्थी या सत्ता लोलुप ही थे।
      एक बार राजा भोज के शासन काल में एक ब्राम्हण ने शिव पुराण एवं मार्कण्डेय पुराण की रचना कर डाली ये बात राजा को नगवार गुजरी कि उन्होंने शिव का नाम क्यों इस्तेमाल किया। और इसपर उन्होंने उसको हस्त छेदन का दंड दे दिया। तो राजा इस प्रकार होना चाहिए कि ब्राह्मण भी अधर्म करते हुए डरे, ब्राम्हण भी इस प्रकार होना चाहिए की राजा भी अधर्म करते हुए डरे, दोनों के बिच संतुलन से ही समाज और धर्म की उन्नति हो सकती है। लेकिन सभी शक्तियाँ किन्ही एक के पास होने से ही अधर्म की वृद्धि होती है, और हमारी गुलामी के कालखंड में यही हुआ। राजनैतिक शक्ति तो विधर्मियों के पास थी अतः बिना उचित दंड शक्ति के अभाव में अधर्म की अवनति ही होती गई। लेकिन यहाँ ब्राम्हणों का मतलब जन्मना ब्राम्हण लगाना उचित नहीं होगा। हमे एक ऐसी समाजिक व्यवस्था की पुनर्स्थापना करना होगा जिसमें हरेक को अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार हो और विद्वान व्यक्ति को ही ब्राम्हण की उपाधि प्रदान की जाए। अतः आज के समय में एक धर्म आधारित राज्य की स्थापना करना एक दम आवश्यक  हो गया है।
       तो सबसे पहले हम जिस हिंदू राष्ट्र के बारे में बात कर रहे है वो इस मौजूदा लोकतंत्र से फलित होने से रहा। हमारा मौजूदा लोकतंत्र तुष्टिकरण को बढ़ावा देने वाला है। और अगर मान भी लीजिए हम लोकसभा में दो तिहाई बहुमत प्राप्त करने में सफल रहे फिर भी हम इच्छित हिंदू राष्ट्र प्राप्त करने में असफल ही रहेंगे। और बहुत होगा तो हम भारत को हिंदुराष्ट्र नाम ही दे सकते है लेकिन वो भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द हो जाएगा क्योंकि यह हमारे संविधान के मूल भावना से मेल नहीं खाती, या अगर कर भी दिए तो इसकी बहुत कम संभावना है कि हमारा शासन हमेशा चलते ही रहेगा क्योंकि कभी भी जनता अगर किसी कुशासन या किसी दुस्प्रचार में फस कर नाम मात्र भी नाराज होगी तो हमारा तख्ता वोट के माध्यम से पलट देगी। फिर दूसरा दल हमारे सारे किए धरे पर पानी फेर सकता है और फिर हम इंतजार करते रह जाएँगे दो तिहाई बहुमत पाने का और दुबारा संविधान संसोधन का। इन सब स्थिति में किसी का भी भला न होगा। बस भला होगा तो उनका जो सत्ता के माध्यम से लाभ कमाना चाहते है और वे जनता को ठग-ठग कर सपने दिखाकर सता में आते-जाते रहेंगे। लेकिन हमलोग स्वप्न ही देखते रह जाएँगे।
       अतः इसके लिए हमे एक समग्र क्रांति की आवश्यकता है जिसमें सशस्त्र एवं सामाजिक क्रांति दोनों शामिल हो। हमें लोगों को इस क्रांति के लिए तैयार करना होगा। इसके अलावा भी हम लोगों को चौतरफा प्रयास करना होगा। जैसे सशस्त्र क्रांति के साथ-साथ अपने लोगों को शाशन पद्धति (संसद) में भी घुसपैठ कराना ताकि अपनी आवाज उठती रहे, और कुछ बचाव की भी संभावना बने। साथ-साथ अपने विचारधारा के लोगो को हरेक क्षेत्रो में भेजना मसलन पुलिस-प्रशासन, सेना तथा शिक्षा क्षेत्र में ताकि वे अपने एजेंडे को गुप्त रूप से लागु करते रहे और क्रांतिकारियों की मदद कर सके। इनमे भी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपनी इस क्रांति की विचारधारा को संपूर्ण सेना और पुलिस और जनता में तेज गति से फैलाते रहना है ताकि समय आने पर हमे उनलोगों द्वारा पूरी मदद मिल सके, और जब ये सब हमारे आंशिक नियंत्रण में भी आने लगेंगे तो हमारी राह आसान बनती जाएगी, क्योंकि ये सारा सिस्टम इन नेताओ के बदौलत नहीं बल्कि इन्हीं नौकरशाह इत्यादि लोगो द्वारा ही संचालित होती है।
        लेकिन यह सब तो तभी होगा न जब अपना एक मजबूत वैचारिक आधार हो। बिना किसी वैचारिक आधार के यह हिंदू राष्ट्र कपोल कल्पना ही साबित होगा। आखिर कैसा होगा हमारा हिंदू राष्ट्र। उसका कैसा प्रारूप होगा। उसका कैसा संविधान होगा। उसमे मौजूदा अल्पसंख्यकों एवं दलितों की क्या स्थिति होगी। हमारी आर्थिक व्यवस्था कैसी होगी। हमारा न्यायतंत्र कैसा होगा। बिना इन सब प्रश्नों के उचित समाधान खोजे बिना किसी भी प्रकार के राष्ट्र की स्थापना करना मुर्खता ही होगी। अतः क्रांति के शुरुआत करने साथ ही इन सब का उचित उत्तर खोजने का कार्य भी शुरू करना होगा। वरना ऐसा होगा कि हमारा राज्य क्रांति तो सफल हो जाएगा लेकिन प्रसाशनिक कौशल के अभाव में हमे उन्ही अधिकारीयों की मदद लेनी पड़ेगी जिनके खिलाफ हम लड़ते आए है तथा जिन्होंने सदा भिन्न-भिन्न उपायों से हमारे आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया हो। ये वास्तव में हमारे लिए एक शर्मनाक स्थिति होगी। और ये बताने की बताने की जरूरत नहीं है कि अंग्रेजो के जाने के बाद हमारा देश उसी का दुष्परिणाम भोग रहा है। आजादी के बाद भी हमे वहीं सिस्टम अपनाना पड़ा जो अंग्रेजो ने हम पर शासन करने के लिए बनाई थी। हमे उन्हीं अधिकारीयों की सेवाए लेनी पड़ी थी जिन्होंने कभी क्रांतिकारियों एवं आजादी के समर्थको के प्रति सहानुभूति न रखी थी। हमे वही न्यायतंत्र अपनाना पड़ा जो अंग्रेजो ने हम गुलाम भारतीयों का न्याय करने के लिए बनाया था, और वह अभी भी वैसे ही रूप में चल रहा है, न नौकरशाही का रूप बदला है न न्यायतन्त्र का। और इसीलिए हमारे ही देश में हिंदी उपेक्षित है, हिंदू उपेक्षित है और सच कहे तो पूरा गरीब हिंदुस्तान उपेक्षित है। अतः क्रांति कार्य और अपना प्रशासनिक ढांचा विकसित करना दोनों साथ-साथ चलना चाहिए जिससे कि हम दुसरो से उधार न लेकर अपना बना बना-बनाया ढांचा विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर सके।
       लेकिन इन सबमे भी सबसे पहले समस्त हिन्दुओं का समर्थन पाना सुनिश्चित करना होगा और इसके लिए, हिंदुओ में एकता लाने के लिए हिंदुओ के मौजूदा विवाद हल करने ही होंगे, खास कर जाति-पाति का विवाद। जब हम हिंदू राष्ट्र की स्थापना करने जा रहे है तो हमे समस्त हिंदुओ को ध्यान रखना पड़ेगा, और इसके लिए इस समाज में मौजूद गैर बराबरी को पटना होगा, ऊँच नीच के भाव को खत्म करना होगा।और जब तक यह मौजूदा जाति व्यवस्था बना रहता है यह संभव नहीं। जाति सनातन नहीं है, सनातन तो एकमात्र केवल परमात्मा ही है।जाति हमी लोगों ने इसी धरती पर आकर बनाई है अतः हमे मौजूदा परिस्थितियों में सच्चाई स्वीकार कर जाति व्यवस्था जो जन्मना है उसे खत्म करना चाहिए और इसे कर्मणा लागु करना चाहिए, लेकिन इसके लिए सभी वर्गो का समर्थन भी प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए  चाहे वो ब्राम्हण हो या शुद्र। सभी मिलकर ही नया सिस्टम बना सकते है। लेकिन फिर भी यदि कोई यह सोचता है कि मौजूदा असमानता को बनाए रखते हुए ही हम राज्य क्रांति करें तो, या तो वह मुर्ख है या स्वार्थी।
      हमे निश्चित ही एक ऐसा सिस्टम बनाना होगा जिसमें सभी हिंदू एक समान हो तथा जो कोई भी हमारे धर्म में प्रवेश करने को इच्छुक हो उनको भी अपना कर समाज में उसको पुर्णतः बराबरी का दर्जा मिले। सभी हिंदू एक समान हो मतलब समाज में सभी एक दुसरे से समान व्यवहार कर सके मसलन शादी, भोजन, इत्यादि। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात शादी की ही है, हिंदू समाज के सभी लोग बिना जाती देखे शादी करे या यो कहे तो जाति व्यवस्था पूरी तरह कर्म के आधार पर होने से ये अपने आप होने लगेगी, नहीं तो मौजूदा व्यवस्था तो और नई-नई जातियों को बढ़ावा देने वाला है। मान लीजिए कोई मुसलमान सनातन धर्म से प्रभावित हो सनातन धर्म को अंगीकार कर लेता है तो इस मौजूदा जाति व्यवस्था में उससे कौन अपनी बेटी का ब्याह करेगा। जब एक हिंदू ही किसी अन्य हिंदू से शादी-ब्याह के रिश्तो में सकुचाता हो तो वह अपनी संतान का विवाह किसी धर्मपरिवर्तित व्यक्ति से कैसे कर सकता है। समाज में इतनी संकीर्णता व्याप्त होंने से अंततः वह पुनः सनातन धर्म छोड़ सकता है अन्यथा वह अपने ही जैसे लोग की खोज करेगा जो उसी तरह मुसलमान से हिंदू बने है जो बहुत दुष्कर कार्य है नहीं तो सबके लिए प्रेम विवाह भी करना आसान नही है। अतः इस समाज के मानसिकता को चेंज किए बिना हिंदू धर्म में एकता नहीं आ सकती और न ही हम हिंदुओ का पुनरोद्धार हो सकता है। कितनी शर्म की बात है न कि हम किसी हिंदू लड़की से ही शादी नहीं कर सकते, केवल अलग जाति होने के कारण, इसमें एक सवाल यह उठता है कि क्या यह प्रथा सनातन है, मतलब आदिकाल से चली आ रही है। तो इसका उत्तर बिलकुल भी न में होगा। क्योंकि जब शक और हुण जो एक बर्बर जातिया थी को सनातन धर्म में किस प्रकार मिलाया गया। हमारे लोगों ने अपनी पुत्रियों को उनसे ब्याहा और वह समाज से इस प्रकार घुल मिल गए कि आज कोई नहीं बचा है जो यह कह सके कि हमारे पूर्वज शक या हुण थे। लेकिन यह घोर रुढ़ीबद्धता आई कहा से। यह निश्चित ही हमारी लंबी गुलामी की देन है।
        कश्मीर के बारे में एक कथा इस प्रकार है कि 14वी सदी में वहाँ के सेनापति ने सनातन धर्म अपनाना चाहा था तो वहाँ के तथाकथित ब्राम्हण विरोध करने लगे। तो उसने फैसला किया किया कि सुबह के समय जिस धर्म के व्यक्ति को पहले देखूंगा या सुनुंगा उसी धर्म को अपना लूँगा। उसने सुबह-सुबह आजान की आवाज सुनी और मौलवी से भेट कर इस्लाम कबूल कर लिया।और बाद में वही शासक बन बैठा फिर शुरू हुआ तलवार के बल पर धर्म परिवर्तन का खेल। कल तक जो सनातन धर्म अपनाने के लिए तैयार था वही आज उन सनातनियों के लिए दुश्मन बन गया था और तब से धर्म परिवर्तन होते होते आज पूरा कश्मीर घाटी हिंदुओ से खाली होने के कगार पर है।
      उसी समय के आसपास की एक और घटना का वर्णन करता हूँ। हरिहर और बुक्का नाम के दो भाई थे। दोनों को बल पूर्वक मुसलमान बनाया गया था, लेकिन शंकराचार्य विद्यारण्य जी ने प्रयास करके उस समय के समाजिक धारा से विपरीत चलते हुए उनका शुद्धिकरण करके फिर से हिंदू बना दिया और बाद में उन्हीं के नेतृत्व में महान विजयनगर सम्राज्य की स्थापना हुई जो लगभग 200 सालो तक चली।
       इसीलिए हिंदुओ के  एकता एवं भलाई के लिए इन कुरीतियों को भी खत्म करने का प्रयास करना होगा। अगर बिना ये सब कुरीतियों के खत्म किए हिंदू राष्ट्र बना भी लिए तो यह अस्थाई होगा। हमे कुरूतियों को इसलिए नहीं खत्म करना होगा कि इससे हिंदू राष्ट्र बनने में बाधा उत्पन्न हो रहा है या यह हिंदूओ की एकता के लिए सही नहीं है। बल्कि यह तो हर स्थिति में समाज के लिए एक अभिशाप की तरह है, एक ऐसा राज्य जहाँ समाज के अधिकांश भाग अपने को शोषित या अपमानित महसूस करें यह किसी के लिए व्यवहारिक तौर पर ठीक नहीं है। नेपाल तो पुर्णतः हिंदू राष्ट्र था, लेकिन वहाँ की जनता ने क्यों नकार दिया वह केवल राजशाही हटाती और मौजूदा लोकतंत्र में भी हिंदू राष्ट्र को बनाए रखती।
      लेकिन वही की जनता ने इसे क्यों ख़ारिज कर दिया। क्योंकि वहाँ हिंदुत्व के नाम पर जनता का शोषण किया जा रहा था। पहले जब राणाशाही थी तो वहाँ छुआ-छुत को क़ानूनी मान्यता प्राप्त थी तथा जो इसे नहीं पालन करता था उसे दंड भी मिलता था, बाद में राजशाही आया तो यह कानून हटा लेकिन दलितों की स्थिति तब भी नहीं सुधरी आज से दस वर्ष पहले अगर कोई दलित किसी दुकान पर कुछ खाता-पिता था तो उसे खुद ही प्लेट साफ करना होता था।कितनी शर्मनाक स्थिति थी उस हिंदू राष्ट्र में जहाँ एक हिंदू, दुसरे हिंदू का शोषण करना अपना जन्मना अधिकार समझता था। क्या हम ऐसा ही हिंदू राष्ट्र का सपना देख रहे है?
       अतः एक आदर्श हिंदू राज्य की स्थापना हेतु हमे समग्र क्रांति की आवश्यकता पड़ेगी।
       इसके आलावा भी हमारा हिंदू राष्ट्र बने या न बने लेकिन इस मौजूदा सामाजिक स्थिति को तो चेंज करना ही होगा। अतः सभी भाई जो हिंदू जागृति में लगे है उनको मेरा सलाह है कि वे अपने आस-पास मौजूद समाजिक विषमता को खत्म करने  का प्रयास जरुर करें। इसी में हमारा स्थाई और भव्य हिंदू साम्राज्य का बिज छुपा हुआ है।
।।जय हिंद।।
।।भारत माता की जय।।

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

कैसे मिली आजादी?

1944 में आजाद हिंद फ़ौज हार चुकी थी, लड़ाई खत्म हो चुकी थी हमारे आजादी के सिपाही जो जिंदा बच गए थे उनको बंदी बना कर लाया गया। फैसला लिया गया कि इन सभी सिपाहियों को लालकिला में खुला कोर्ट मार्सल करके फासी पर लटका दिया जाए जिससे हमारी सेना (उस समय भारतीय सेना में अधिकांश भारतीय जवान ही थे) का मनोबल और बढ़ जाएगा।
लेकिन उस समय हमारे देश के वे तथाकथित नेता क्या कर रहे थे?
जब लड़ाई चल रही थी तो अंग्रेजो ने प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया था, फारवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओ को गिरफ्तार कर लिया गया था और चारो ओर यह प्रोपगैडा फैला दिया था कि जापानियों ने भारत पर आक्रमण कर दिया है जिससे जनता एवं साधारण सैनिक भुलावे रहे।©आलोक
लेकिन ये उस समय के हमारे तथाकथित नेता सुभाष चंद्र बोस से अपनी पुरानी दुश्मनी का बदला निकाल रहे थे। उनलोगों ने जरा भी राष्ट्रिय हित का ध्यान न रखते हुए उनका समर्थन करना और जनता द्वारा उनके समर्थन में आंदोलन छेड़ना तो दूर, 1942 के कुछ महीनों में नेहरु खुले मंच से घोषणा करते थे कि "मेरी इच्छा और क्षमता है कि इन जापानियों से लड़ने के लिए लाखो गुरिल्ले तैयार किए जाए", क्या नेहरु को वास्तविकता नहीं पता थी, ये वही नेहरु थे जिनकी सरकार ने आजादी के बाद देश में सेना को बनाए रखने को ही गैर जरूरी ठहरा दिया  था, वो तो भला हो चीन का जिसके आक्रमण के कारण भारत के पागल नेता संभल गए वरना कुछ ही समय बाद हम 1965 में पाकिस्तानके गुलाम होते। ऐसे व्यक्ति द्वारा ऐसा बयान क्या दर्शाता है (जो सेना को ही गैर जरूरी समझते हो लेकिन सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ ऐसी बयानबाजी)। उस समय आम सैनिक को यह सुन कर क्या लगा होगा? वे इतना इतना थोड़े जानते होंगे कि वास्तविकता क्या है और गलत क्या है सही क्या है। उस अंग्रेजो ने अंग्रेजो ने ऐसे-ऐसे नेताओ का भरपूर उपयोग किया. एक अज्ञेय नामक साहित्यकार थे, वे तो युद्ध मैदान तक पहुच कर सैनिको की हौसला अजफाई कर रहे थे तथाकथित जापानियों के खिलाफ लड़ने के लिए, ऐसे ही कई जाने-माने और प्रसिद्द व्यक्तियों का अंग्रेजो ने भरपूर इस्तेमाल किया. 
लेकिन जब यह बात युद्ध खत्म होने बाद आम जनता को पता चला कि यह युद्ध अंग्रेजो और आजाद हिन्द फ़ौज के बिच था, तथा नेता जी हमारे आजादी के लिए ही लड़ रहे थे और उन्हें अपने ही देश के जवानो ने हरा दिया तो वह पूरी तरह इस तथाकथित भारतीय सेना और अंग्रेजो के खिलाफ आक्रोशित हो गई। जगह-जगह उग्र प्रदर्शन होने लगे। सेना का कोई भी जवान के समाज के सामने आने पर उन पर ताने कसे जाने लगे। लोगो ने उनलोगों को समाज में मुँह छिपाने लायक भी नहीं छोड़ा। माताएँ बहने भी नपुंसक कहकर छेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी। इन सब परिस्थियों से सेना में अत्यंत क्षोभ पैदा होने लगी एवं खुद के इस कुकृत्य के लिए शर्मिदंगी महसूस होने लगी।©आलोक 
इन परिस्थितियों में तो जवाहरलाल नेहरु जैसे सुविधापरस्त नेता समाज को दिखाने के लिए फिर से वकालत का चोला पहन इन जवानों के पैरवी में उत्तर आए लेकिन वे उस समय कहाँ थे जब ये जवान सीमा पर अपने देश को आजाद कराने के लिए अंग्रेजो से संघर्ष कर रहे थे, तब वे उनको हत्तोसाहित करने में लगे थे।
काश ये समाज उसी समय जाग्रत हो गया होता तो सेना भी उसी समय ही जागृत हो गई होती और एक बार फिर 1857 जैसा दृश्य उत्त्पन हो जाता,  युद्ध के मैदान में ये सैनिक अंग्रेजो की पाला छोड़ कर इन सैनिकों के साथ मिल जाते तो ये मुठ्ठी भर अंग्रेज हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाते क्योंकि उनकी सारी ताकत तो द्वितीय विश्युद्ध में लगी हुई थी। 1857 में तो ये समय पर सवधान होने, अपनी गोरी पलटन को समय पर बुलाने और सिखों एवं चंद राजाओ के देशद्रोह के कारण अपना राज्य बचाने में सफल हो गए थे लेकिन अबकि बार समय क्रांतिकारियों के पूरी तरह अनुकूल था अगर ये भारतीय सिपाही विद्रोह कर देते तो अंग्रेजो का तो पुरे देश में कत्लेआम ही मच जाता और हमारा देश क्षण भर में स्वतंत्र हो जाता जिसके पहले राष्ट्राध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ही होते।
आखिर नेता किसे कहते है? जब देश के लिए अनुकूल समय आ रहा हो तो उस परिस्थितियों में समाज को जगाना और लड़ने के लिए खड़ा करना ही तो नेता का कर्तव्य होता है वरना जब-जब जनता बिना किसी नेतृत्व के स्वतः स्फूर्त हो कर जागती है तो सफलता कम लेकिन अराजकता ज्यादा फैलती है और उस बेला में कुछ स्वार्थी लोग श्रेय लेने की होड़ में लग जाते है बजाय कि एक सशक्त नेतृत्व देने के। और इसी मर्म को असली नेता सुभाष जी ने समझा और भिन्न-भिन्न देशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों में देशभक्ति की भावना भर कर लड़ने के लिए तैयार किया और देखते-देखते 40000 सेना वाली एक फ़ौज तैयार करके अंग्रेजो से भीड़ गए लेकिन क्या वे भी केवल अपने 40000 सेना से 20 लाख सेना वाली को जितने की उम्मीद कर रहे थे। कहीं न कहीं उनके मन में यह जरुर रहा होगा कि  भारतीय सेना अबकि बार भी 1857 की तरह हमारा साथ देगी और थोड़ा-बहुत जापान की सहायता पर निर्भर थे।
लेकिन हाय उनको क्या मालूम था कि जो लड़ाई हम देश के बाहर रह कर, कर रहे है उसी लड़ाई को अपने देश में ही समर्थन नहीं मिलेगा और इसके जिम्मेदार निश्चित रूप से हमारे देश के उस समय के मौजुदा नेता थे। उनके तो एक इशारे पर पूरा देश लड़ने को तैयार बैठा था लेकिन इन अहिंसा के पुजारियों या कायरो ने इन लोगो के समर्थन में एक वाक्य भी नहीं बोला, यहाँ तक कि सुभाष बाबु ने इन लोगो का समर्थन पाने के लिए सभी आपसी मतभेद भुलाकर गाँधी जी राष्ट्रपिता का संबोधन तक दे डाला।
लेकिन इनलोगों ने जनता को जगाने का कार्य नहीं किया बल्कि जनता के स्वतः स्फूर्त होने पर अपनी सुविधापरस्त राजनीती का नमूना जरुर दिखा दिया।
45 दिन चले कोर्ट मार्सल में अंग्रेजो ने अपने चमचों(नेहरु) की सारी दलीले ठुकरा कर आजाद हिन्द फ़ौज के सेनानियों को फांसी का सजा सुना दिया। फटी वर्दी पहने, आधा पेट भोजन किये, बुखार से तपते, बैलगाड़ियों में सामान ढोते और मामूली बन्दूक हाथों में लिये बहादूरी के साथ "भारत माँ की आजादी के लिए लड़ने वाले "आजाद हिन्द सैनिकों" को हराकर एवं बन्दी बनाकर लाने वाले ये भारतीय जवान ही तो थे, जो "महान ब्रिटिश सम्राज्यवाद की रक्षा के लिए" लड़ रहे थे! अगर ये जवान सही थे, तो देश की जनता गलत थी; और अगर देश की जनता सही थी, तो फिर ये जवान गलत थे! दोनों ही सही नहीं हो सकते। सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रुप लिया, फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रुप में फूटकर बाहर आने लगा। इन सब परिस्थियों को देखते-समझते हुए अंग्रेजो ने उन सबकी फ़ासी रद्द कर दी। लेकिन अब सैनिको की चेतना धीरे-धीरे जागने लगी थी वे किसी भी हालत में अंग्रेजो की गुलामी स्वीकार करने की स्थित में नहीं रह गए थे। भारत के प्रत्येक देशी सैनिक के दिल में देश के प्रति कुछ-कुछ होने लगा और आजाद हिन्द फौज द्वारा भारत की स्वतंत्रता के लिए शुरू किये गये सशस्त्र संघर्ष से प्रेरित होकर रॉयल इंडियन नेवी के भारतीय सैनिकों ने 18 फरवरी 1946 को एचआईएमएस तलवार नाम के जहाज से मुम्बई में अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध मुक्ति संग्राम का उद्घोष कर दिया। उनके क्रान्तिकारी मुक्ति संग्राम ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की। नौसैनिकों का यह मुक्ति संग्राम इतना तीव्र था कि शीघ्र ही यह मुम्बई से चेन्नई, कोलकात्ता , रंगून और कराँची तक फैल गया। महानगर , नगर और गाँवों में अंग्रेज अधिकारियों पर आक्रमण किये जाने लगे तथा कुछ अंग्रेज अधिकारियों को मार दिया गया। उनके घरों पर धावा बोला गया तथा धर्मान्तरण व राष्ट्रीय एकता विखण्डित करने के केन्द्र बने उनके पूजा स्थलों को नष्ट किये जाने लगा । स्थान-स्थान पर मुक्ति सैनिकों की अंग्रेज सैनिकों के साथ मुठभेड होने लगी।
लेकिन आप क्या सोचते है? क्या ऐसे समय में इन गद्दार नेताओं ने इन आजादी के दीवाने का साथ दिया? नहीं-नहीं, ऐसा सोचना भी भयंकर भूल होगी चूँकि देशद्रोहिता इनके रगों में खून बन कर दौड़ती थी, इसलिए इन्होंने उन सैनिको का साथ देना, समर्थन देना तो दूर इन लोगो ने उनका विरोध करना शुरू कर दिया। नौसैनिकों के मुक्ति संग्राम की मौहम्मद अली जिन्ना ने निन्दा किया व जवाहरलाल नेहरू ने अपने को नौसैनिक मुक्ति संग्राम से अलग कर लिया। मोहनदास जी गांधी जो उस समय पुणे में थे तथा जिन्हें इंडियन नेवी के मुक्ति संग्राम से हिंसा की गंध आती थी , उन्होंने नेवी के सैनिकों के समर्थन में एक शब्द भी नहीं बोला, अपितु इसके विपरीत उन्होंने वक्तव्य दे डाला कि - "यदि नेवी के सैनिक असन्तुष्ठ थे तो वे त्यागपत्र दे सकते थे।"
क्या अपने देश की स्वतंत्रता के लिए उनका मुक्ति संग्राम करना बुरा था? जो लोग देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों पर खेलते थे , जो लोग कोल्हू में बैल की तरह जोते गये, नंगी पीठ पर कोडे खाए, भारत माता की जय का उद्घोष करते हुए फाँसी के फंदे पर झुल गये क्या इसमें उनका अपना कोई निजी स्वार्थ था? इंडियन नेवी के क्षुब्ध सैनिकों ने राष्ट्रीय नेताओं के प्रति अपना क्रोध प्रकट करते हुए कहा कि -  'हमने रॉयल इंडियन नेवी' को राष्ट्रीय नेवी में परिवर्तित कर दिया है, किन्तु हमारे राष्ट्रीय नेता इसे स्वीकार करने को तैयार नही है। इसलिए हम स्वयं को कुण्ठित और अपमानित अनुभव कर रहे है। हमारे राष्ट्रीय नेताओं की नकारात्मक प्रतिक्रिया ने हमको अंग्रेज नेवी अधिकारियों से अधिक धक्का पहुँचाया है।'
हमारे इस भारतीय राष्ट्रीय नेताओं के विश्वासघात के कारण नौसैनिको का मुक्ति संग्राम हालाँकि कुचल दिया गया, लेकिन इसने ब्रिटिस साम्राज्य की जड़े हिला दी और अंग्रेजों के दिलों को भय से भर दिया। अंग्रेजों को ज्ञात हो गया कि केवल गोरे सैनिको के भरोसे भारत पर राज नहीं किया किया जा सकता , भारतीय सैनिक कभी भी क्रान्ति का शंखनाद कर 1857 का स्वतंत्रता समर दोहरा सकते है और इस बार सशस्त्र क्रान्ति हुई तो उनमें से एक भी जिन्दा नहीं बचेगा , अतः अब भारत को छोडकर वापिस जाने में ही उनकी भलाई है ।©आलोक
तत्कालीन ब्रिटिस हाई कमिश्नर जॉन फ्रोमैन का मत था कि 1946 में रॉयल इंडियन नेवी के विद्रोह (मुक्ति संग्राम ) के पश्चात भारत की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई थी । 1947 में ब्रिटिस प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने भारत की स्वतंत्रता विधेयक पर चर्चा के दौरान टोरी दल के आलोचकों को उत्तर देते हुए हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा था कि- 'हमने भारत को इसलिए छोडा , क्योंकि हम भारत में ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे थे । '(दि महात्मा एण्ड नेता जी , पृष्ठ -125 , लेखक - प्रोफेसर समर गुहा) नेताजी सुभाष से प्रेरणा प्राप्त इंडियन नेवी के वे क्रान्तिकारी सैनिक ही थे जिन्होंने भारत में अंग्रजों के विनाश के लिए ज्वालामुखी का निर्माण किया था। इसका स्पष्ट प्रमाण ब्रिटिस प्रधानमंत्री 'लार्ड' एटली और कोलकात्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश 'पी. बी. चक्रवर्ती' जो उस समय पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल भी थे के वार्तालाप से मिलता है। जब चक्रवर्ती ने एटली से सीधे - सीधे पूछा कि ' गांधी का अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन तो 1947 से बहुत पहले ही मुरझा चुका था तथा उस समय भारतीय स्थिति में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे अंग्रेजों को भारत छोडना आवश्यक हो जाए , तब आपने ऐसा क्यों किया?' तब एटली ने उत्तर देते हुए कई कारणों का उल्लेख किया, जिनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारण 'इंडियन नेवी का विद्रोह (मुक्ति संग्राम) व नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कार्यकलाप थे जिसने भारत की जल सेना, थल सेना और वायु सेना के अंग्रेजों के प्रति लगाव को लगभग समाप्त करके उनकों अंग्रेजों के ही विरूद्ध लडने के लिए प्रेरित कर दिया था।' अन्त में जब चक्रवर्ती ने एटली से अंग्रेजों के भारत छोडने के निर्णय पर गांधी जी के कार्यकलाप से पडने वाले प्रभाव के बारे मेँ पूछा तो इस प्रश्न को सुनकर एटली हंसने लगा और हंसते हुए कहा कि ' गांधी जी का प्रभाव तो न्यूनतम ही रहा।'
एटली और चक्रवर्ती का वार्तालाप निम्नलिखित तीन पुस्तकों में मिलता है-
1. हिस्ट्री ऑफ इंडियन इन्डिपेन्डेन्ट्स वाल्यूम - 3 , लेखक- डॉ. आर. सी. मजूमदार।
2. हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस , लेखिका - गिरिजा के. मुखर्जी ।
3. दि महात्मा एण्ड नेता जी , लेखक- प्रोफेसर समर गुहा।
भाइयों लेकिन इन सबके बावजूद आजद हिंद फ़ौज के इन आजादी के दीवानों को आजादी के बाद क्या मिला। उनके उपर आंतकवादी का ठप्पा लगा कर सम्मान पूर्वक जीने का हक को भी छिनने का प्रयास किया गया। क्या आप सोच सकते है इस बारे में। हाँ ये बिलकुल सत्य है।
जी हाँ मित्रों, आज की पीढ़ी ये सुनकर हिल जायेगी की कांग्रेस की नजर मे इस देश के लिए अपना बलिदान देने वाले मतवाले आज़ाद हिंद फ़ौज के फौजी गद्दार है ।ये संसद के रिकार्ड मे दर्ज है। जब डॉ श्यामा प्रशाद मुखर्जी ने नेहरु से आजाद हिंद फ़ौज के पूर्व सैनिको को भारतीय सेना के मानदंड पर पेंशन और भारतीय सेना अपने सैनिको को रिटायर के बाद जो सुविधा देती है वो सब देने का प्रस्ताव रखा था, तो नेहरु ने कहा की "मै आजाद हिंद फ़ौज को मान्यता नही देता , ये एक आतंकवादी कृत्य था . मै किसी निजी सेना बनाने के खिलाफ हूँ भले ही उसका इस्तेमाल देश के लिए हो, इसलिए मै ऐसे किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार नही करूँगा।" मित्रों, ये संसद के रिकार्ड मे है। हाय नेहरु आपको जरा भी लज्जा नहीं आई इन आजादी के परवानो को आतंकी ठहराने में, आखिर आप किस मुँह से लालकिला पर गए थे इन आंतकवादियों के पैरवी करने।
सारा इतिहास इन देशद्रोहियों के कारनामों से भरा पड़ा है अगर जरूरत है तो इनको खोज कर के जनता के सामने प्रस्तुत करने की। इन लोगो ने 60 सालो से सत्ता में रहकर मिडिया को मनमुताबिक चलाया। लेकिन अब सोसल मिडिया का जमाना आ गया है और सच्चाई ज्यादा देर तक छुप कर नहीं रह सकती।
written by Alok pandey

क्या हम अभी भी गुलाम है?




दोस्तों एक दिमाग को झकझोर देने वाला पोस्ट पढ़िए।

क्या हम अब भी गुलामी में रह रहे है?

हाँ, ये बात भले ही सत्य है कि सरकार अब भारतीयों के हाथ में  ही आ गई है लेकिन अब भी हम स्वतंत्र नहीं है अब भी हम ब्रिटिश सरकार की मानसिक गुलामी में पल रहे है।

वैसे तो देश में, सरकार में  और सेना में बहुत सारे बदलाव आ गए है पर अभी भी कुछ वैसी बातें है, जिसे सुन कर हमारा खून खौल जाए।

हम तब तक कैसे स्वतंत्र कहलाएँगे जब तक हम उन गुलामी के प्रतिको को उखाड़ कर फेक न दे जो हमे रह-रह कर याद दिलाए तुम अभी भी हमारे गुलाम हो।

©आलोक

हाँ भाइयों हमारे देश में अभी भी ऐसी-ऐसी परंपराएँ चल रही है जो अंग्रेजों के लिए तो गर्व का बिषय हो सकती है परन्तु वह हर भारतीय के लिए एक अपमान की कड़वा घुट के समान है।

दोस्तों आज भी आजाद हिंद फ़ौज और अंग्रेजो के बिच के हुए लड़ाई में अंग्रेजो की तरफ से लड़ते हुए सैनिकों को शहीद करार दिया गया है और उनका स्मारक बना कर हरेक साल सम्मान भी किया जाता है जबकि वही आजाद हिंद फ़ौज के सेनानियों को सम्मान तो दूर उनको आंतकवादी करार दे दिया गया है।©आलोक

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1944 की लड़ाई में आजाद हिंद सेना भले ही हार गई हो लेकिन ब्रिटिशों की सेना को जबरजस्त नुकसान पहुँचा और 16000 से ज्यादा भारतीय सैनिक, नहीं नहीं अंग्रेजो के गुलाम या देशद्रोही भारतीय सैनिक अंग्रेजो की तरफ से लड़ते-लड़ते मारे गए। और उन देशद्रोहियों के याद में अंग्रेजो ने कोहिमा(नागालैंड) में एक भव्य शहीद स्मारक बनाया। आज भी उनका रखरखाव बड़े धूम-धाम से किया जाता है इसके लिए इंग्लैंड अपना पैसा खर्च करता है और जो भी भारतीय वहाँ जाता है उन देशद्रोहियों को आदरपूर्वक नमन करता है, लेकिन मैं केवल यहाँ आम भारतीयों की बात नहीं कर रहा हूँ अगर भारत के राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री भी वहाँ जाते है तो शहीदों(अंग्रेजो के लिए) उर्फ़ देशद्रोहियो को जरुर सलामी देते है क्योंकि हम तो हम तो अभी भी रानी विक्टोरिया के अधीन है और उनके सम्मान पर आँच आए ऐसा हम कैसे बर्दास्त कर सकते है।©आलोक

इस लिंक में पढ़िए कि किस प्रकार प्रणव मुखर्जी इन सैनिकों का गुणगान कर रहे है।

www.samaylive.com/nation-news-in-hindi/241917/president-pranab-mukherjee-recalled-kohima-war-martyrs.html

लिंक प्रणव मुखर्जी कोहिमा के देशद्रोहियो को श्रधांजली देते

यहाँ पर आम भारतीयों को भुलावे में रखने के इस युद्ध को भारत जापान युद्ध का नाम दे दिया जाता है। अब ये बताइए कि जब उस समय भारत आजाद ही नहीं था तो भारत और जापान के बिच युद्ध कैसा वो तो ब्रिटेन और जापान के बिच था, और जापान क्यों यह तो प्रत्यक्ष आजाद हिंद फ़ौज के साथ था जिसमें आजाद हिंद फ़ौज की मदद जापान कर रहा था।©alok

  क्या आप ऐसा भी कह सकते है कि चूँकि सुबास चंद्र बोस जापान के मित्र थे इसलिए जापान-भारत युद्ध में वे जापान की मदद कर रहे थे। अगर ऐसा ही होता तो आजाद हिंद सेना की हार के तुरंत बाद सुबास चन्द्र बोस भारत की आजादी के लिए जापान के उस समय के कट्टर शत्रु रूस से समर्थन या सहायता मांगने नहीं रूस नहीं जाते। और उसी समय रूस जाते समय उनका प्लेन दुर्घटना ग्रस्त हो गया जिससे उनकी मौत हो गई लेकिन कुछ लोग ये भी कहते है कि उस दिन कोई विमान दुर्घटना नहीं हुआ था बल्कि रूस ने उनको सहायता देने से इंकार कर दिया और बंदी बना लिया नहीं तो वे अगर जिंदा भारत में रहते तो ऐसे आदमी नहीं थे जो छुप कर रहते।©आलोक

ये लिंक देखिए कि ब्रिटेन ने अपने पुरे सम्राज्य के इतिहास में नेता जी के साथ हुई जंग को ही सबसे बड़ी माना है।

  http://archive.today/0bsqK 

वही दूसरी तरफ उन गुलामों को तो आदर पूर्वक सम्मान दिया जाता है लेकिन आजादी के बाद भी उन आजादी के दीवानों "आजाद हिंद फ़ौज" के सैनिकों को सम्मान तो दूर "आंतकवादी" करार दे दिया गया।

नेहरु ने संसद मे आज़ाद हिंद फ़ौज को गद्दार कहते हुए आज़ाद हिंद फ़ौज के पूर्व फौजियो को सेना की तरह पेंशन और दूसरे सुविधाए देने से मना कर दिया था। जी हाँ मित्रों, आज की पीढ़ी ये सुनकर हिल जायेगी की कांग्रेस की नजर मे इस देश के लिए अपना बलिदान देने वाले मतवाले आज़ाद हिंद फ़ौज के फौजी गद्दार है। ये संसद के रिकार्ड मे दर्ज है। जब डॉ श्यामा प्रशाद मुखर्जी ने नेहरु से आजाद हिंद फ़ौज के पूर्व सैनिको को भारतीय सेना के मानदंड पर पेंशन और भारतीय सेना अपने सैनिको को रिटायर के बाद जो सुविधा देती है वो सब देने का प्रस्ताव रखा था। लेकिन नेहरु ने कहा की "मै आजाद हिंद फ़ौज

को मान्यता नही देता, ये एक आतंकवादी कृत्य था। मैं किसी निजी सेना बनाने के

खिलाफ हूँ भले ही उसका इस्तेमाल

देश के लिए हो, इसलिए मै ऐसे

किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार

नही करूँगा।"

मित्रों, ये संसद के रिकार्ड में है।

लेकिन इतना ही क्यों दोस्तों यहाँ केवल एक ही कारनामे थोड़े है जिसके चलते मैं कह रहा हूँ कि हम अभी भी गुलाम है।

गोरखा रेजीमेंट की रानीखेत इकाई मे रानी लक्ष्मीबाई की शिकस्त एवं अंग्रेजो के झाँसी विजय के प्रमाणस्वरूप झाँसी का राजदंड अनुरक्षित और प्रदर्शित है क्या यह रानी लक्ष्मीबाई और समस्त क्रांतिकारियों का घोर अपमान नहीं है। हम कैसे मान ले कि हम पूरी तरह स्वतंत्र है जब तक कि हमारी सरकार या सेना रानी लक्ष्मीबाई को हराने में गर्व अनुभूति करती रहेगी।

तो क्या हमारे हीरो रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, नाना साहब, सावरकर और सुबास न हो कर रानी विक्योरिया, कैप्टन नील, विलियम स्लिम, डलहौजी और हैवलॉक है।

निश्चित रूप से नहीं, फिर भी देशद्रोहियों को सम्मान एवं शहीदों एवं क्रांतिकारियों का अपमान क्यों।©आलोक

ऐसी सरकार किस काम की जो देश के गौरव नहीं अंग्रेजो के गौरव को सम्भालने में लगी है।

सरकार को तुरंत चाहिए कि उन सभी परंपराओ को बंद करे जो हमारे राष्ट्रिय अपमान का बिषय हो तथा राष्ट्रिय सम्मान से जुडी कुछ नई परंपरा स्थापित किया जाना चाहिए।

दोस्तों इस मैसेज को इतना फैलाओ की ये बात सरकार तक पहुँचे और सरकार इस बिषय पर सोचने को मजबूर हो जाए।जय हिंद।जय भारत।©आलोक 

लिंक- प्रणव मुखर्जी कोहिमा के देशद्रोहियो को श्रधांजली देते हुए

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लिंक- जिसमे ब्रिटेन ने नेता जी के साथ हुई अपनी लड़ाई को सबसे बड़ा माना है:- http://archive.today/0bsqK 


बुधवार, 5 मार्च 2014

अहिंसक क्रांति का भ्रम


"यूनानो-मिस्रो-रोमाँ सब मिट गए जहाँ से

अब तक मगर है बाक़ी, नामो-निशाँ हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी

सदियों रहा है दुश्मन, दौरे-ज़माँ हमारा"

.......

ऐसी कौन सी बात है कि इतने बड़े-बड़े युनान, रोम एवं मिस्त्र की संस्कृति धुल में मिल  गई, इसाइयत एवं इस्लामियत के झंडाबरदार जहाँ भी गए वहाँ की संस्कृति को नष्ट करके अपने में मिला लिया, लेकिन भारत में लगभग हजार वर्षो के शासन के उपरांत भी हमारी संस्कृति का बाल भी बांका न कर सके। क्या उन लोगो ने इतने सालो में इस संस्कृति को नष्ट करने का जरा भी प्रयास नहीं किया? अगर किया तो ऐसी कौन सी बातें है कि सारी दुनिया फतह करने वाले भारत में आकर परास्त हो गए।

     आखिर हमारी यह सांस्कृतिक अमरता का क्या कारण है, क्या इसी तरह गीत गाते रहने से हमारी संस्कृति सुरक्षित रह पाएगी, या हम इसे सचमुच 'अमर' मान बैठे है और हमारी जिम्मे बस यह गीत गाना ही रह गया है।

    नहीं ऐसा सोचना भी हमारी भयंकर भूल होगी। हमारी संस्कृति जो भी कुछ बात है जो इसकी हस्ती अब तक नहीं मिटा सका है तो वो है हमारी 'संघर्ष करने की प्रवृति'। यह हमारी धरती माता ही ऐसी है, जब-जब लगा कि हम हार रहे है हमारा मस्तक झुक रहा है, तब-तब उसके गर्भ से कोई न कोई वीर पुत्र उत्पन्न हुआ है जो हमारी संस्कृति एवं धर्म की रक्षा कर सके।चाहे महाराणा प्रताप हो या शिवाजी जिन्होंने आजीवन मुगलों की दासता स्वीकार नहीं की, या गुरु अर्जुन देव हो या वीर हकीकत राय जिन्होंने अपना सर कटाना श्रेयस्कर समझा बजाए कि धर्म परिवर्तन के, या चाहे गुरु नानक देव, संत कबीर एवं संत कबीर एवं तुलसी जैसे अनेक महान संत हो जिन्होंने समाज के अंदर एक नई जीवन शक्ति का संचार किया और लगभग मृतप्राय सा पड़ा समाज को संजीवनी प्रदान की।चाहे पद्मिनी जैसी हजारों वीरांगनाए हो जो अपने सतीत्व एवं धर्म की रक्षा के लिए धधकते अग्नि में कूद पड़ी।

       अगर हमारा संस्कृति साँस भी ले पा रहा है तो इन्हीं असंख्य बलिदानों के बदौलत जिन्होंने अपने खून के एक-एक कतरे से इस धरती को सींचा है न कि इस तरह केवल अमरता के गीत गाने से।

      लेकिन आज एक बार फिर चारो ओर अंधकार एवं निराषा का माहौल व्याप्त हो गया है, एक अदना सा देश भी भारत को आँख दिखा रहा है और हम मन मसोस कर रह जा रहे है। हमारी रगों में कायरता घर करता जा रहा है। लेकिन इन सबका कारण क्या है?

       सत्य एवं अहिंसा का विकृत स्वरूप का प्रचार यानि सदगुण विकृति का कुप्रचार ही इस समस्या का मूल कारण है। आज हमारे मन में यह बैठा दिया गया है कि हमने जो कुछ भी पाया है (अपनी वर्तमान आजादी) इसी सत्य एवं अहिंसा के पुण्य प्रताप से, और हम अपने कायरता जा राग अलापने में लगे है। लेकिन वास्तविकता इसके ठीक उलट है। हमने जब-जब यह सदगुण विकृति का प्रवृति अपनाया है तब-तब हमने सिर्फ खोया, खोया और खोया ही है और हमने अपना लक्ष्य तभी पाया है जब हम इस सदगुण विकृति का चोला उतार फेंका है और जैसे को तैसे की तरह जबाब देना सिख लिया है।

   आजकल हमे अहिंसा की ताकत समझाई जा रही है, जो वर्षो पहले नाकाम हो चुकी है। हमे कायरता की बूटी पिलाई जा रही है, धर्मनिरपेक्षता एवं सहिष्णुता का ढोंग रच कर हवा बनाया जा रहा है और हमारी अधिकांश भोली-भाली जनता इनके झांसे में आ भी रहे है और आएँगे भी क्यों न, आखिर 150 वर्ष पुरानी गुलामी में जो पल रही है।

       जी हाँ, 150 वर्ष पुरानी गुलामी। हमारी आखिरी क्रांति सन 1857 ईस्वी में हुआ था जब पूरा समाज कायरता के बंधन को तोड़कर अंग्रेजो से खुल कर लड़ा था। लेकिन इस क्रांति को दबाने के पश्चात अंग्रेजो ने ऐसी हवा बनाई कि हम लगभग पूरी तरह इसमें फस गए और हममें कायरता घर कर गई जो अंग्रेजो के जाने के बाद भी पूरी तरह नहीं मिट सका है।

      गाँधी जी भी अंग्रेजो के इसी प्रयोग का एक हिस्सा मात्र थे जो उनलोगों द्वारा भारतीय जनता पर किया गया।

       आइए बात करें सन 1857 की क्रांति के बाद क्या हुआ। इस क्रांति को दबाने के पश्चात अंग्रेजो ने अपनी शासन पद्धति में अनेक बदलाव किए। सबसे पहले उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से सरकार लेकर रानी विक्टोरिया के हाथ में स्थानांतरित कर दिया क्योकिं लोगो का गुस्सा कंपनी के प्रति चरम पर था। फिर नवीन सामग्री के नाम से एक घोषणा पत्र अंग्रेजो ने हिंदुस्तान भर में प्रचारित करवाया।उसमें यह पूरा प्रावधान था कि लोगो को लगे कि रानी उनकी भलाई करना चाहती है, खासकर उसमें घोषणा कि ब्रिटश सरकार ब्रिटिस हिंदुस्तान के नेटिवो के धर्मो में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगी। क्योकिं क्रांति भडकने का मूल कारण में यह भी एक था कि यह ब्रिटिस सरकार हम दोनों हिन्दू और मुसलमानों को इसाई धर्म में परिवर्तित करा देगी। इन सभी घोषणाओ से कुछ भारतीय नेता इनके झांसे में आ गए और अंग्रेजो का गुणगान करने लगे।लेकिन यह  क्रम केवल 1900 तक ही चला एक बार फिर जनता जागने लगी और इसका प्रभाव बंग-भंग आंदोलन के समय स्पष्ट देखा गया। अंग्रेज सरकार हिल गई और उसे अपना यह बंगाल विभाजन वापस लेना पड़ा और तो और उसने अपना राजधानी कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट कर लिया।

इसके बाद अंग्रेज अधिक सतर्क हो गए और तरह-तरह के चालबाजिया चलने लगे। उन्हीं में एक मोहरा उन्होंने गाँधी के रूप में खेला।

     इस खेल में अंग्रेजो ने गाँधी के अहिंसा के सामने अपना घुटना टेकने का अभिनय करना शुरू कर दिया। जिसका भारतीय जनता पर व्यापक एवं विस्तृत प्रभाव पड़ा। इससे जनता को स्पष्ट संदेश गया कि जो अंग्रेज बम से नहीं झूक रहा है वह अहिंसा के सामने बेबस नजर आ रहा है। जनता अंग्रेजो के अत्याचारों से परेशान थी, उसे गाँधी की अहिंसा उम्मीद की किरण नजर आया। फिर क्या, सारी-की-सारी जनता गाँधी के पीछे-पीछे हो ली।

     अंग्रेज भी अपने चाल में सफल होते दिख रहे थे क्योंकि उन्होंने तो भारतीय जनता के आंदोलन की दिशा ही चेंज कर दी। कल तल जो व्यक्ति अंग्रेजो के खिलाफ क्रांति की बात करता था आज वही व्यक्ति गाँधी के पीछे खड़ा हो अहिंसा का नारा बुलंद किए हुए था। अंग्रेज इसे और हवा देने में जुट गए। लेकिन क्रांतिकारी भी चुप नहीं बैठे थे, भगत सिंह एवं चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिवीरो ने इस लौ को भड़काने का काम किया तथा सुबास चंद्र बोस ने आजाद हिंद फ़ौज के माध्यम से इसे मूर्त रूप देने का प्रयास किया।कुल मिला कर अंग्रेजो को यह लग गया कि अब इस देश में रहना खतरे से खाली नहीं है तो जाते-जाते भी वे अपना चाल चल गए, वैसा चाल जिससे भरतीय जनता भ्रमित हमेशा भ्रमित रहे। उन्होंने ऐसा प्रदर्शित किया कि हम उन अहिंसावादियों के सामने घुटने टेक कर भाग रहे है। और इससे जनता के मन में और स्पष्ट संदेश गया कि जीत अहिंसा की हुई है और वे इस अहिंसा को ही सबकुछ मानने लगे और अभी तक हम इस प्रभाव ने नहीं मुक्त हो पाए है। यहीं मुख्य कारण भी है हमारी इस कायरता का।