सोमवार, 8 अक्टूबर 2018

मोहन भागवत के व्याख्यान का विश्लेषण

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वर्तमान सर संघचालक प०पू० मोहन भागवत जी के तीन दिवसीय "भविष्य का भारत" व्याख्यानमाला श्रृंखला के दौरान दिए गए उद्बोधन का विश्लेषण।
By Alok Desh Pandey

व्याख्यानमाला के पहले दिन तो भागवत जी ने संघ के स्थापना की पृष्ठभूमि बताई तथा कार्यपद्धति की चर्चा की जो कि हम सभी कार्यकर्ता रोज अनुभव करते है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात है सिद्धान्त की जिस पर उन्होंने दूसरे और तीसरे दिन चर्चा की। इसी चर्चा के आधार पर संघ और उसके सिद्धांत पर बहुत सारे प्रश्न उठ खड़े हुए है। और उसी का मैं विश्लेषण करने जा रहा हूँ।
     सबसे पहली बात आखिर हिंदुत्व की परिभाषा क्या है? हिन्दू किसे कहा जा सकता है। वीर सावरकर की माने तो जो इस भारत भूमि को पूण्य भूमि और पितृ भूमि दोनों मानता हो वो हिन्दू कहे जाने योग्य है। भारत भूमि से उतपन्न होने वाले चाहे जितने भी सम्प्रदाय हो सबमें कुछ कॉमन बाते है और इसके चलते हम सभी का आपस में और इस मातृभूमि के साथ भी गहरा लगाव है। इस लगाव और बन्धुत्व भावना के कारण ही हम देशभक्ति की पराकाष्ठा भी पार कर जाते है।
       लेकिन उन मतो का क्या जो इस भूमि से जुड़े नहीं है। सावरकर का मानना है कि उनका पूण्य भूमि वेटिकन, जेरुसलम और मक्का मदीना ही बना रहेगा, वे इसे पितृ भूमि तो मान सकते है लेकिन उनके अंदर इस भूमि के प्रति वो श्रद्धा भाव कभी नहीं उतपन्न हो सकती जो यहाँ से उतपन्न होने वाले मत मतान्तरों वाले लोगो में है। अतः उनकी देशभक्ति भी हमेशा संदिग्ध रहेगी। अतः हिन्दुओ में केवल सनातनी, सिख, बौद्ध, जैन इत्यादि ही आएंगे। ये समस्त मत भले ही परस्पर विरोधाभासों से भरें हो लेकिन वो एक समान मूल्य रखते है। जैसे सत्य आग्रही। सभी के मतों का सम्मान करना। विविधता को भेद का विषय न बनाना इत्यादि।
       लेकिन इसके विपरीत मोहन भागवत जी ने हिंदुत्व की अपनी एक परिभाषा दिया है जिसमें उन्होंने हिंदुत्व के एक सद्गुण को ही समूचा हिंदुत्व के रूप में परिभाषित कर दिया। उनके अनुसार विविधता को स्वीकार करना ही हिंदुत्व है। मतलब भारत भूमि पर जितने भी मत-मतान्तर वाले लोग है वो सभी हिन्दू है चाहे उनका मत कोई भी क्यों न  हो, भारत ने सबको सबको स्वीकार किया है और इस नाते वो सभी हिन्दू है। इसके लिए उन्होंने ध्येय वाक्य वसुधैव कुटुम्बकम का भी सहारा लिया, आगे उन्होंने ये भी कहा कि आप उनको हिन्दू न कह कर भारतीय कहो, कोई दिक्कत नहीं, चलेगा! लेकिन मेरे अनुसार उन सभी को संबोधित करने लिए हिन्दू शब्द ही सबसे उपर्युक्त है। हिन्दुओ का संगठन करने से मेरा तातपर्य भी यही है। अतः हिंदुत्व के अंतर्गत मुसलमान भी आ जाएंगे। बिना मुसलमानों के यह हिंदुत्व अधूरा है। अगर हम कहते है कि हमे मुसलमान नहीं चाहिए तो हिंदुत्व भी नहीं बचेगा।
       भागवत जी ने यहाँ हिंदुत्व के एक गुण को ही हिंदुत्व के रूप में परिभाषित कर भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है। कहा गया है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है और मनुष्य अगर अपनी गलतियों से सीखने लगे तो पूरी जिंदगी कम पड़ जाएगी। अतः इस विषय में हमे इतिहास से जरूर सीखना चाहिए। दुनिया के किसी भी देश में किसी भी मुसलमान का अन्य मतावलंबियों के प्रति सहिष्णुता का कोई इतिहास नहीं रहा है क्योंकि काफिरों (गैर मुसलमानों) से नफरत की बात उनलोगों के मुख्य धार्मिक ग्रंथ कुरान में ही बताई गई है। अतः जब तक वे कुरान पढ़ते रहेंगे नफरत तो नहीं ही मिटने वाली, और एक मुसलमान होने के नाते कुरान पढ़ना वे अपना धार्मिक कर्तव्य समझते है। तो बिना इस नफरत को मिटाए अगर कोई हिन्दू मुस्लिम एकता की बात करता है तो वह निश्चित रूप से भ्रम फैलाने का ही कार्य कर रहा है।
        विविधताओं को और दूसरे के विचारों को सम्मान देना हिंदुत्व के अनेक गुणों में से एक है न कि यही हिंदुत्व है। ऐसा मानने से वो संप्रदाय भी हिन्दू हो जाता है जो अपने को तो हिन्दू नहीं ही मानता है अपितु हमेशा हिन्दू कहे जाने वालों से शत्रुवत व्यवहार ही करता है। फिर यह उसी जैसा हो गया जैसे कि कोई भेड़ किसी भेड़िया के सामने हाथ फैला कर बैठ जाए और कहे कि हम तो आपको मित्र मानते है चाहे आप हमें खा जाओ। क्या ऐसा करने से प्रकृति के सिद्धांत बदल जाएँगे? या उस भेड़िया का हृदय परिवर्तित हो जाएगा? मित्रता तो समान विचारधारा वाले लोगो से निभाई जाती है। अगर मुसलमानों को हिन्दू नहीं मानने से भागवत जी की तथाकथित हिंदुत्व नामक विचारधारा खतरे में आ जाएगा तो इतना समझ लेना चाहिए कि उनको हिन्दू मान व्यवहार करने से स्वयं हिन्दुओ का अस्तित्व ही खतरे में आ जाएगा।
     मोहन भागवत जी ने अपने तथाकथित हिंदुत्व की परिभाषा को और दृढ़ करते हुए दूसरे दिन के उद्द्बोधन में ही कहा कि अगर कोई ईसाई या अन्य मत मतान्तर वाले जो अपने को हिन्दू नहीं मानते और हिन्दू धर्म अपनाना चाहते है तो भी इसकी कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि हम तो आपको पहले ही हिन्दू मान चुके है। इसके लिए उन्होंने बकायदा रमण महर्षि का उदाहरण भी दिया कैसे उन्होंने एक ईसाई को हिन्दू बनने से रोक दिया और उसे एक "बढ़िया ईसाई" बनने को प्रेरित किया। अतः संघ की दृष्टि में घर वापसी की प्रक्रिया भी संदिग्ध हो गया है।
       इस प्रकरण में जब तीसरे दिन किसी ने यह सवाल पूछा कि जब आपने सभी को हिन्दू मान लिया है तो धर्मांतरण का विरोध क्यों करते है क्योंकि वो तो फिर भी हिन्दू रहेगा। इस प्रश्न पर भागवत जी ने धर्मांतरण को राष्ट्रांतरण बताकर विरोध करने के बजाए वही गोलमोल जबाब दिया कि सभी जब हिन्दू ही है तो धर्मांतरण की आवश्यकता ही क्यों? और हम धर्मांतरण का नहीं इसका व्यवसायीकरण का विरोध करते है।
      तीसरे दिन ही जब शिक्षा बिषयक सवाल पूछा गया जिसमें शिक्षा में भारतीय मूल्यों को लेकर सवाल पूछे गए तो उन्होंने भरषक यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि भारतीय मूल्यों में ईसाई मूल्यों और इस्लामिक मूल्यों का भी जगह है अतः वेद उपनिषद के साथ-साथ इनलोगों के मूल्यों को भी शिक्षा नीति में शामिल करना चाहिए।
       तीसरे दिन आरक्षण के ऊपर सवाल-जवाब में भी अन्य सभी सवालों पर तो अपना राय स्पष्ट किए लेकिन अल्पसंख्यकों के आरक्षण के सवाल पर अपना कोई मत रखने के बजाए इसे संसद पर छोड़ दिया कि इस मामले को वही जाने।
       क्या सही जबाब देने से जो अल्पसंख्यक होने के नाते संप्रदाय के आधार पर आरक्षण की मांग कर रहे है उनकी भावनाओं के आहत होने का खतरा है जिससे संघ द्वारा अपना तथाकथित विस्तारीकरण की योजना को गहरा धक्का लगता। अगर ऐसा है तो यह निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में तुष्टिकरण की शुरुआत हो गई है जिसकी कीमत आज नहीं तो कल देश को चुकानी ही पड़ेगी।
       गाँधी जी में भी सर्वप्रिय होने की लालसा घर कर गई थी और अपने इस लालसा को पूरा करने के लिए उन्होंने ऐसे-ऐसे कार्य कर दिए कि सर्वत्र उनकी निंदा होने लगी। लेकिन इससे ज्यादा भयंकर कीमत हमारे देश को और उसकी भोली भाली जनता को चुकानी पड़ी। इसलिए हम सभी का कर्तव्य बनता है कि गलत चीजों का विरोध करें चाहे कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो?
      अल्पसंख्यको के सवालों पर तीसरे दिन ही उन्होंने अल्पसंख्यक शब्द का ही विरोध करते हुए कहा कि यहाँ कोई भी अल्पसंख्यक नहीं है। हम सभी को हिन्दू मान चुके है और सबसे बराबर अपनत्व का व्यवहार करेंगे। उन्होंने मुसलमानों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ने का आह्वान करते हुए कहा कि आपको बिना कारण डरने की जरूरत नहीं है एक बार शाखा आकर खुद देखिए कि आपके खिलाफ कोई बात होती है या नहीं। रही बात हिन्दू कहने की तो हमारे लिए हिंदुत्व का मतलब किसी पंथ से न होकर समूचा राष्ट्रीयत्व से है और इसका प्रयोग करना हम नहीं छोड़ सकते। लेकिन मेरे हिन्दू कहने से ये कदापि नहीं है कि आप लोग पराए हो।
       इस क्रम में उन्होंने गुरु जी के प्रसिद्ध पुस्तक बंच ऑफ थॉट में मुसलमानों के प्रति विचार को भी नकारते हुए कहा कि यह बयान उस समय के तत्कालिक परिस्थिति के अनुसार दी गई होगी। इन सारे तथाकथित साम्प्रदायिक विचारों को निकाल कर हमने एक नई पुस्तक का निर्माण किया है "गुरुजी विजन और मिशन"। अब सभी को यही पुस्तकें पढ़ना चाहिए।
     भागवत जी ने अंत में संगठन के विचारधारा में हुए इस परिवतर्न को मान्य करने के लिए आद्य सर संघचालक प०पू० डॉ हेडगेवार जी का सहारा लिया कि यह परिवर्तन करने की अनुमति सीधे हमें उन्हीं से मिली है, इसके अलावा पिछले तीन दिनों के जितने भी विचार यहाँ से निकले है वो केवल मेरे विचार नहीं है, बल्कि संघ के अंदर गहन विचार-विमर्श होने और नीचे की कार्यकारिणी द्वारा व्यापक सहमति मिलने के बाद ही यहाँ बोले गए है।
    इतने सारे बातों को बोलने के बाद भी अगर किसी को लगता है कि संघ में न्यून मात्र भी परिवर्तन नहीं आया है तो वह ऐसा ही है जैसे कोई शिकार सामने शिकारी को देखर अपनी आँखें बंद करके बैठ जाए और शिकारी के भाग जाने की कल्पना करने लगे।
       यहाँ हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रयत्नों में भागवत जी और गाँधी जी के द्वारा किए प्रयासों की तुलना करने पर पता चलता है। दोनों का लक्ष्य तो एक ही था लेकिन दृष्टि बोध अलग-अलग है। गाँधी ने मुसलमानों और हिन्दुओ को अलग-अलग कौम माना फिर उन दोनों को एक कराने की दृष्टि से प्रयास किए। जबकि यहाँ मोहन भागवत जी के अनुसार वो अलग है ही नहीं। सभी एक है बस आत्मविस्मृत हो गए है और उनको केवल याद दिलाने की जरूरत है यह एकता जमीन पर भी दिखने लगेगी।
       दृष्टिबोध भले ही अलग अलग हो लेकिन भावना एक ही है हिन्दू मुस्लिम एकता की भावना। और यही भावना प्रेरित करती है त्याग करने को मतलब अपने तरफ से कुछ नरमी बरतने को अर्थात तुष्टिकरण को। जिसका फल सदा से यही होता आया है कि वो हमारी सहृदयता को कायरता समझेंगे और पीठ पीछे छुरा भोकेंगे।
       अतः आज समय की आवश्यकता है कि हम सभी यथार्थ को पहचानते हुए चले तभी हम अपने समाज को आगे आने वाली मुसीबतों से बचा सकते है।
आलोक देश पाण्डेय, बक्सर (बिहार)

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

आर्य शब्द का प्रयोग टाइटिल में नहीं करना चाहिए

आज कल देख रहे है कि कई लोग अपने नाम के पीछे आर्य लगा ले रहे है मुझे आर्य या अन्य कोई भी टाइटिल लगाना उचित प्रतीत नहीं होता दोस्तों आज की हमारे हिन्दू समाज में सबसे बड़ी समस्या ये जन्मना जाति व्यवस्था ही है ये जाति व्यवस्था ही है जो हम हिन्दुओ को एक होकर किसी मुद्दे पर खुल कर लड़ने नहीं देता ये विकृत जाति व्यवस्था ही था जिसके कारण हम बटे हुए हिन्दू लगभग हजार वर्ष तक गुलामी झेले और अगर ये जाति व्यवस्था समय रहते  खत्म हुआ तो वो दिन भी दूर नहीं जब हम फिर से गुलामी कि बेड़ियों में बंध जाए
      अब आते है मुद्दे पर आखिर हम अपने नाम के पीछे आर्य लिख कर समाज को क्या दिखाना चाहते है? जब हम ये जानते है कि आर्य का मतलब श्रेष्ठ होता है तो नाम के पीछे आर्य लगाने से क्या हम श्रेष्ठ हो जाएँगे या हम श्रेष्ठ है इसलिए अपने नाम में आर्य लगा देते है. दोनों ही स्थितियों में ऐसा करना गलत है
            पहली स्थिति तो ठीक उसी प्रकार है जैसे कोई चोर भी अपना नाम के पीछे साधू रख कर साधू बन जाए इसके संबंध में कुछ लोग ये तर्क देते है कि जैसे हम अपना नाम महापुरुषो के नाम पर इसलिए रखते है क्योंकि हम उसके गुणों को अपने में उतार सके, इसी प्रकार हम अपने नाम में भी आर्य इसलिए लगाते है क्योंकि हम भी आर्य गुणों अर्थात श्रेष्ठ गुणों को आत्मशात कर सके। दूसरी स्थिति में प्रायः लोग ये तर्क देते है कि जिस प्रकार कोई डॉक्टर अपने नाम में dr. लगाता है कोई इंजीनियर अपने नाम में er. लगाता है जो उसके qualification को show करता है उसी प्रकार हम श्रेष्ठ गुणों को धारण करते है इसलिए अपने नाम में आर्य लगाते है।
      दोनों स्थितियों में यह गलत है, अपना नाम श्रेष्ठ पुरुषो के नाम पर रखना अलग बात है लेकिन अपने नाम में ही श्रेष्ठ लगा लेना अलग बात है। श्रेष्ठ पुरुषो के नाम पर अपना नाम रखना तो हमारी संस्कृति है लेकिन जब हम श्रेष्ठ पुरुषो का नाम रख लिए तो फिर एक अलग से अपने नाम में श्रेष्ठ जोड़ने की क्या आवश्यकता? क्या अपने नाम के आगे श्रेष्ठ या विद्वान् लगाना एक प्रकार का घमंड का घोतक नहीं लगता? क्या कोई विद्वान् आदमी स्वमेव को विद्वान् कहता है? या समाज उसे विद्वान् या श्रेष्ठ उपाधि देती है?
      इसका dr. या  Er. लगाने से भी कोई संबंध नहीं, चिकित्सा एक व्यवसाय की तरह है या आप इसे इस तरह कह सकते है कि अगर वो अपने आपको चिकित्सक नहीं दिखाएगा तो लोग उसे डाक्टर के रूप कैसे जानेंगे और फिर लोग उनसे अपना मर्ज ठीक करवाने उनके पास कैसे आएँगे। और फिर इसके चलते तो वह लोगो की उचीत सेवा भी करने से वंचित रह जाएगा। अतः उनके लिए अपनी विशेषज्ञता को समाज के सामने दिखलाना आवश्यक हो जाता है। इसी प्रकार अन्य व्यवसायों में भी है, सबमे अपने आपको show करना ही पड़ता है कि हम किस चीज के विशेषज्ञ है, धर्म में भी जो पुराण जानता है उसे पौराणिक कहते है जो वेद जानता है उसे वैदिक। लेकिन फिर भी कोई स्वयं को विद्वान् या श्रेष्ठ कैसे कह सकता है? विद्वान् तो किसी को समाज ही कहता है न कि कोई स्वयं को विद्वान् कहता फिरता है। अतः अपना नाम किसी श्रेष्ठ महापुरुष के नाम पर रख लेना ही काफी है न कि उसमे एक अलग से श्रेष्ठ या आर्य संबोधन लगाना। अपने आप को विद्वान् या श्रेष्ठ कहना या बड़ाई करना हमारी संस्कृति में नहीं है।
            कुछ लोग ये भी कहते है कि राम को आर्य कहा जाता था लेकिन मैं उनलोग से पूछता हूँ कि क्या कोई ऐसा एक भी उदाहरण दिखा सकते है जिसमे राम ने खुद को आर्य कह कर संबोधित किया हो जैसे मैं आर्य राम इत्यादि जब भी राम को आर्य, वीर इत्यादि कहकर संबोधित किया गया है दुसरे व्यक्तियों द्वारा ही संबोधित किया गया है इसके आलावा भी आप अन्य प्राचीन ग्रंथो का ही उदाहरण दिखला दे जिसमे नायक ने खुद को वीर, श्रेष्ठ इत्यादि कह कर संबोधित किया हो. अतः अपने आप का बड़ाई करना हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है
            कुछ लोगो द्वारा अपने नाम में आर्य इसलिए भी लगाया जाता है क्योंकि वे बाकि हिन्दुओ से अपनी पहचान अलग रखना चाहते है मानो वे ढोल पिट कर बताना चाहते हो कि मैं जाति-पाती से उपर उठ गया हूँ, मैं प्रगतिशील हो गया हूँ आदि-आदि और उनकी नजर में बाकि हिन्दू घोर रुढीवादी है, परम्परावादी है अज्ञानी है इस तरह के कार्यो से ही अभी भी विश्व में हिन्दुओ का मान-सम्मान नहीं है और लोग इसे 33 करोड़ देवी-देवताओ वाले धर्म के रूप में ही समझते है. लेकिन वही जब आप अपनी पहचान हिन्दू ही रख कर ये लड़ाई लड़े तो बाकि हिन्दू भी प्रगतिशील कि श्रेणी में आते जाएँगे और अधिकांश व्यक्ति ऐसा कर भी रहे है
      आर्य लगाने से एक बात और होती है कि इससे उस व्यक्ति को आर्य समाजी समझ लिया जाता है मतलब अगर कोई व्यक्ति के नाम में आर्य लगा हुआ पाते है हम तो झट से समझ जाते है कि बन्दा आर्य समाज के विचारधारा से सहमत है इससे आर्य शब्द जातीयता का सूचक बनता जा रहा है, आप भले ही ये कितना ही कह दे कि आर्य लगाने वाला जरूरी नहीं कि वो आर्यसमाजी ही हो लेकिन धीरे-धीरे कलांतर में यह स्थायित्व ग्रहण करता जाएगा और आपके इस कदम (नाम के पीछे आर्य लगाने) से एक और आर्य नामक जाति का ही उद्भव हो जाएगा तथा इस ‘आर्य’ शब्द का घोर अवमूल्यन होगा जैसे आज ‘ब्राम्हण’ शब्द का गरिमा गिरा हुआ है। कोई चोर भी जो ब्राम्हण कुल में उत्पन्न होता है वो भी अपने आपको ब्राम्हण कहलाने में गर्व महसूस करता है। किसी दुष्ट, व्यभिचारी का खून भी ब्राम्हण के नाम पर जातीय उफान से भर उठता है, दलित चिंतको ने तो ब्राम्हण शब्द को गाली का रूप दे दिया है। लेकिन जिस प्रकार आर्य मतलब श्रेष्ठ होता है ब्राम्हण का मतलब भी तो हमारे शास्त्रों में वही बताया गया है. अतः आप ये तर्क नहीं दे सकते कि चूँकि आर्य का अर्थ श्रेष्ठ होता है इसलिए यह कलांतर में जाति सूचक शब्द नहीं बन पाएगा।
      कुल मिला कर मेरा मत ये है कि हम नाम के पीछे टाइटिल का ही निषेध क्यों  करे और इससे समबन्धित आंदोलन चलाए. क्या राम, कृष्ण, अर्जुन अपने नाम के पीछे आर्य लगाते थे ,सिंह लगाते थे या पाण्डेय लगाते थे या क्या वशिष्ठ, विश्वामित्र, परशुराम अपनी नाम के पीछे मिश्रा, दुबे, चौबे या अन्य जाति सूचक शब्द लगाते थे। क्या हमारे प्राचीन ग्रंथो रामायण महाभारत इत्यादि में ही ऐसा कोई नाम उल्लेख है जिसके पीछे कोई जातीय सूचक शब्द लगा हो। अतः हम अपने पूर्वजो का गौरवशाली परंपरा का अनुपालन करते हुए अपने नाम में टाइटिल का पूर्ण निषेध करे तो बेहतर होगा।
 written by alok

परम पवित्र हिन्दू शब्द

हमारे कुछ आर्यसमाजी भाई हिन्दू शब्द से विशेष रूप से चिढ़ते है अतः यह लेख खास कर उन्हीं लोगो के लिए है।
इसमें बहुत सारे तथ्य वीर सावरकर के 'हिंदुत्व' नामक पुस्तक से ली है।
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उनलोगो का कहना है कि हिन्दू शब्द विदेशियों द्वरा दिया गया है और उसका अर्थ काला या चोर होता है इत्यादि-इत्यादि।
        पहली बात यह कि हिन्दू शब्द विदेशी है ही नहीं यह हमारे ही धरा की एक पवित्र नदी सिधु के नाम पर है। हमे यह नाम अरबियों द्वारा प्रदान नहीं की गई है। यह आपलोगों कि जो धारणा बन गई है कि ‘हिन्दू’ या ‘हिंदुस्तान’ शब्दों की उत्पत्ति मुसलमानों की द्वेष भावना से हुई है, सवर्था असत्य है। जिस समय मुहम्मद का जन्म भी नहीं हुआ था, अरब नाम कि जाति का धराधाम पर नमो निशान भी नहीं  था, उन दिनों भी यह प्राचीन राष्ट्र सिन्धु (या हिन्दू) नाम से ही सुविख्यात था। हम भी और बाहर वाले भी इस राष्ट्र को इसी नाम से संबोधित करते थे। अरबो ने यह खोजकर नहीं निकाला, प्रत्युत उन्हें इस नाम की जानकारी ईरानियों, यहूदियों, तथा अन्य जातियों से प्राप्त हुई।
            किन्तु यदि हम ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा भी कर दे तो क्या यह समझना कोई कठिन कार्य है कि यदि यह नाम वस्तुतः तिरस्कार का सूचक होता तो हमारी जाति के पराक्रमी और श्रेष्ठ वीर पुरुष इसे कदापि स्वीकार न करते। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि अरबी और फारसी भाषाओं से भी हमारे पूर्वज सुपरिचित थे। मुसलमान तो हमें काफ़िर भी कहते आए हैं, तो क्या हम हिन्दुओ ने इस नाम को ग्रहण कर लिया? यदि नहीं तो फिर हिन्दू और हिंदुस्तान इन शब्दों में ही यह राष्ट्रिय अपमान उन्होंने किस भांति सहन कर लिया?       अनेक व्यक्तियों का यह कथन है कि ‘हिन्दू’ शब्द संस्कृत भाषा का नहीं हैं। यह सही है, परन्तु ‘हिन्दू’ ही क्यों अन्य अनेक ऐसे शब्द भी हैं, जो संस्कृत में नहीं है किन्तु फिर भी हम उनका प्रयोग करते हैं। उदाहरणतः बनारस, मराठा, सिख, गुजरात एवं पटना इत्यादि. परन्तु क्या ये शब्द कहीं बाहर से आए है? ये सब उसी संस्कृत का अपभ्रंश है और हिन्दू भी संस्कृत शब्द सिन्धु का अपभ्रंश मात्र ही है।
       यह भी संभव है कि आधुनिक मुसलमानी फारसी भाषा में इस शब्द के साथ ही कोई तिरस्कारसूचक भाव भी आ गया हो, और कालान्तर में यह भाव उनलोगों ने अपने डिक्सनरी में जोड़ दिया होगा, परन्तु इस के कारण यह तो नहीं हो जाता कि हिन्दू शब्द का मूल अर्थ ही यह हो जाए और उसे ‘काला आदमी’ का पर्यायवाची स्वीकार कर लिया जाए। 'हिंदी’ और  ‘हिन्द’ शब्द भी फारसी भाषा में हैं किन्तु उनका अर्थ ‘काला’ नहीं है। और इसके साथ हमे यह भी विदित होना चाहिए कि इन शब्दों का उद्भव भी हिन्दू शब्द के साथ-ही-साथ सिन्धु अथवा सिंध इन्हीं संस्कृत शब्दों से हुआ है। यदि इस बात को सत्य समझ लिया जाए कि हिन्दू का अर्थ ‘काला’ होने के कारण ही हमें हिन्दू कहा गया तो फिर हिन्द और हिंदी इन शब्दों का अर्थ इस ढंग पर क्यों नहीं किया गया कि उनका अर्थ काला अथवा काला आदमी समझ लिया जाए। वस्तुस्थिति यह है कि वह शब्द आधुनिक फारसी भाषा से उद्धृत नहीं है अपितु ईरान की प्राचीन जींद भाषा के समय से प्रचलित है जिस समय ‘हप्तहिन्दू’ का तात्पर्य ‘सप्तसिंधु’ ही था।
        इस भांति हिन्दू और हिंदुस्तान ये गौरवपूर्ण और देशाभिमान के प्रतिक शब्द उस युग से हमारे देश और राष्ट्र के लिए प्रयुक्त होते रहे हैं, जब मुसलमानों अथवा मुस्लिम ईरानियों का कहीं पता भी नहीं था।
        एक समय ऐसा भी युग रहा है जब स्वयं इंग्लैण्ड में ही ‘इंग्लैण्ड’ नाम नार्मन विजेताओं कि दृष्टि में इतना गिर गया था कि वह परस्पर गाली गलौच के लिए व्यवहार में आने लगा था? “क्या मैं अंग्रेज हूँ” यह कहना ही अपनी घोर भर्त्सना करना होता था अथवा “तुम अंग्रेज हो” यह किसी नार्मन को कह देना एक अक्षम्य अपराध माना जाता था। परन्तु क्या इसी कारणवश अंग्रेजो ने अपने देश और राष्ट्र का नाम परिवर्तित कर दिया और इसे इंग्लैण्ड के स्थान पर ‘नारमण्डी’ का नाम दे दिया? और क्या इंग्लैण्ड अथवा अंग्रेज नाम त्याग कर देने से ही वे बड़े हो जाते? कदापि नहीं, प्रत्युत इसके विपरीत उन्होंने अपने पूर्वजों के रक्त और नाम के उत्तराधिकार का परित्याग नहीं किया इसी कारण अब हम देख सकते हैं कि जहाँ ‘नार्मन’ शब्द और नार्मन देश ढूंढे भी नहीं मिल पाता वहाँ अंग्रेज जाति और अंग्रेजी भाषा ने विश्व में अपना महान सम्राज्य स्थापित करने में सफलता अर्जित कर ली।by आलोक
         संघर्षो के युग में राष्ट्रों कि मनः स्थिति भी अस्थिर हो उठती है. ऐसी स्थिति में यदि फारसवालो ने हिन्दू का अर्थ ‘चोर’ अथवा ‘काला आदमी’ ही मान लिया हो तो यह भी समझ लेना चाहिए कि हिन्दू भी मुसलमान शब्द को सदैव भद्र व्यक्ति का पर्यायवाची नहीं मानते थे। एक समय ऐसा भी था जब किसी को मुसलमान अथवा ‘मुसन्डा’ कहना उसे पशु कहने से भी अधिक निकृष्ट अपशब्द समझा जाता था।
        मूल बात यह है कि मान लीजिए कोई देश अपने डिक्सनरी में भारत का अर्थ शैतान रख दे तो क्या आप अपने देश का नाम ही बदलने लगीएगा? ठीक उसी प्रकार अगर किसी ने द्वेष वश हिन्दू शब्द का गलत अर्थ किया है तो हम अपने आप को हिन्दू शब्द से अलग क्यों करें। बजाए कि अपने आप को इस हिन्दू शब्द से अलग करे, इसके बदले हम अपने राष्ट्र, भाषा, धर्म इत्यादि को उन्नति के शिखर पर पहुचा कर इस हिन्दू शब्द को और गौरवान्वित करने  की कोशिस करें तो बेहतर रहेगा।©आलोक
        इन सबके आलावा यह बात भी अविस्मरणीय तथ्य है कि प्राचीन यहूदी, ‘हिन्दू’ शब्द से बल-विक्रम और शौर्य का अर्थ ग्रहण करते थे, अर्थात ये गुण हमारी जाति और राष्ट्र के साथ सम्बद्ध थे। 'सोहाब मो अलक्क’- नामक एक अरबी महाकाव्य में उल्लेख मिलता है कि “अपने ही परिवार और जाति वालों के अत्याचार और प्रहार तो एक हिन्दू कि तलवार से भी अधिक तीक्ष्ण होते है। इसके साथ ही ईरानियों में एक उक्ति प्रचलित है “हिन्दू के समान उत्तर देना”. जिसका तात्पर्य समझा जाता है, ‘हिन्दुस्तानी तलवार और वीरता के प्रदर्शन के साथ गहरा घाव लगाना’। बाविलोन देश के प्राचीन निवासी सर्वश्रेष्ठ कपड़े को ‘सिन्धु’ की संज्ञा देते थे, क्योंकि इस श्रेष्ठ श्रेणी का कपड़ा प्रायः सप्तसिन्धु से ही उन्हें प्राप्त हो पाता था। इससे यह अब स्पष्ट हो जाता है कि इन्हें भी हमारे इस प्राचीन बाबिलोनियन भाषाओँ में इस शब्द को राष्ट्रिय अर्थ में प्रयुक्त किए जाने के अतिरिक्त दुसरे किसी रूप में पयुक्त किए जाते नहीं सुना।
       क्या आपलोग बता सकते है कि ये हिन्दूओ की तलवार का स्वाद ईरानियो या यहूदियों ने हमारी गुलामी के काल के पहले चखी थी या बाद में।
       अतः उपरोक्त सभी तथ्यों से क्या यह बात सुस्पष्ट नहीं हो जाती कि अपने इस ‘हिन्दू’ नाम के प्रति आदर का भाव जागृत करने का उपाय इस नाम का परित्याग करना, घृणा करना अथवा इसको अस्वीकार करना न हो कर  अपने शस्त्र तेज से, उद्येश्य की पावनता तथा अपनी उदात्त संस्कृति से विश्व को इस बात के लिए बाध्य करना ही है कि वह इस नाम का सम्मान करते हुए नतमस्तक हो जाए।
      अतः हिंदू शब्द से घृणा करने के बजाए उसे अपना कर उसे और गौरवान्वित करने का प्रयास करना चाहिए, न कि उसे तिरस्कृत करना चाहिए।।जय हिन्द।।
©आलोक

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

हिन्दू राज्य की ओर


मेरे मन में हिंदू राष्ट्र बनाने का एक स्पष्ट प्रारूप बना है। सबसे पहले तो हमे यह तय करना होगा हम किस प्रकार का हिंदू राष्ट्र चाहते है।
      निश्चित रूप से एक ऐसा राज्य जिसमें सनातन धर्म को सरकारी धर्म की मान्यता प्राप्त हो। वह राज्य हिंदू धर्म के विकास, एवं संवर्धन  में सहयोग करें। आज की स्थिती यह है कि राजा धर्म के मामले में हस्तक्षेप ही नहीं करना चाहता। सारा कार्यभार पोंगा-पंडितो पर छोड़ दिया है, जिससे समाज उन्नति के बजाय अवनति की और बढ़ रहा है। धर्म में राजा का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है जो पिछले 800 साल से नहीं है, और यही हमारी धर्म का अवनति का मुख्य कारण है लेकिन ऐसा भी नहीं कि राजा ही धर्म का सर्वे सर्वा हो। हमारी समाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था ऐसी है कि राजनैतिक गुलामी के बावजूद इसमें धर्म का संचार निरंतर होता रहा और समय-समय पर धर्म की अलख जगाने वाले महापुरुष जन्म लेते रहे। और यही कारण है कि इतने लंबे समय तक थपेड़े खाने के बावजूद हमारी संस्कृति जिन्दा रही। लेकिन इसको उन्नति के पथ पर अग्रसर करने के लिए धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग राज्य व्यवस्था को लागु करना ही चाहिए।
       राजा का कर्तव्य होता है कि वह धर्म की रक्षा और अधर्म के विनास के लिए अग्रसर हो, इसके अनुसार वह योग्य एवं धार्मिक व्यक्तियों को अपने राज्य में उचित सम्मान दे तथा अधर्मियों को उचित दंड भी दे। लेकिन यह व्यवस्था समाज के सर्वे सर्वा तथाकथित ब्राम्हणों के हाथों में आने पर जन्मना जाति व्यवस्था का कुत्सित रूप धारण करती गई और इस प्रकार के श्लोक भी रचे जाने लगे कि अगर कोई ब्राम्हण चोर, बदमास, लुटेरा, व्यभिचारी भी हो तो उसे पूजना चाहिए लेकिन अगर कोई शुद्र ज्ञानवान, चरित्रवान भी हो तो उसका तिरस्कार करना चाहिए।
पूजिय विप्र शील गुण हीना,
शूद्र ना गण गुण ज्ञान प्रविना।
                    (राम चरित मानस)
यहाँ मैं तुलसीदास की आलोचना नहीं करना चाहूँगा और उनके द्वारा किए गए महान कार्य के प्रति कृतज्ञ भी हूँ लेकिन फिर भी यह चौपाई उस समय की समाजिक मानसिकता को ही दर्शाता है. क्या यह विवेक के कसौटी पर खरी उतरती है। चूँकि शासन विधर्मियों के हाथ में था और वे सभी हिंदुओ को समान रूप से प्रताड़ित करते थे, अतः धर्म के मामले में तो उनका हस्तक्षेप समाज के लिए पूरी तरह अस्वीकार्य ही था, उस स्थिति में समाज ने तथाकथित ब्राम्हणों पर ही विश्वास किया, और उनलोगों ने भी जी भर कर इसका फायदा उठाया। ऐसा नहीं है कि उस समय अच्छे ब्राम्हण नहीं थे लेकिन समाज में अच्छे लोगो की संख्या प्रायः कम ही रहती है और उस समय अपना उचित राज्य व्यवस्था नहीं होने के कारण अच्छे लोगो को बहुमत के बल पर दबाना भी कोई मुश्किल कार्य नहीं होगा, वास्तव में यही पर जरूरत  पड़ती है एक धर्म आधारित राज्य व्यवस्था के स्थापना की, क्योंकि एक राजा ही अपने दंड शक्ति के बल पर अधर्म को रोक सकता है और उस समय अपना कोई धार्मिक राजा होता तो हमारे समाज में प्रचलित कुरूतियो को तथा धार्मिको के दबाने के प्रयत्न को जरुर रोकता,  विद्वान ब्राह्मण को धर्म की उन्नति करने के प्रयास में सहायता करता एवं अधर्मियों को उचित सबक सिखाता। लेकिन जो कहीं बचे  भी थे वे सब स्वार्थी या सत्ता लोलुप ही थे।
      एक बार राजा भोज के शासन काल में एक ब्राम्हण ने शिव पुराण एवं मार्कण्डेय पुराण की रचना कर डाली ये बात राजा को नगवार गुजरी कि उन्होंने शिव का नाम क्यों इस्तेमाल किया। और इसपर उन्होंने उसको हस्त छेदन का दंड दे दिया। तो राजा इस प्रकार होना चाहिए कि ब्राह्मण भी अधर्म करते हुए डरे, ब्राम्हण भी इस प्रकार होना चाहिए की राजा भी अधर्म करते हुए डरे, दोनों के बिच संतुलन से ही समाज और धर्म की उन्नति हो सकती है। लेकिन सभी शक्तियाँ किन्ही एक के पास होने से ही अधर्म की वृद्धि होती है, और हमारी गुलामी के कालखंड में यही हुआ। राजनैतिक शक्ति तो विधर्मियों के पास थी अतः बिना उचित दंड शक्ति के अभाव में अधर्म की अवनति ही होती गई। लेकिन यहाँ ब्राम्हणों का मतलब जन्मना ब्राम्हण लगाना उचित नहीं होगा। हमे एक ऐसी समाजिक व्यवस्था की पुनर्स्थापना करना होगा जिसमें हरेक को अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार हो और विद्वान व्यक्ति को ही ब्राम्हण की उपाधि प्रदान की जाए। अतः आज के समय में एक धर्म आधारित राज्य की स्थापना करना एक दम आवश्यक  हो गया है।
       तो सबसे पहले हम जिस हिंदू राष्ट्र के बारे में बात कर रहे है वो इस मौजूदा लोकतंत्र से फलित होने से रहा। हमारा मौजूदा लोकतंत्र तुष्टिकरण को बढ़ावा देने वाला है। और अगर मान भी लीजिए हम लोकसभा में दो तिहाई बहुमत प्राप्त करने में सफल रहे फिर भी हम इच्छित हिंदू राष्ट्र प्राप्त करने में असफल ही रहेंगे। और बहुत होगा तो हम भारत को हिंदुराष्ट्र नाम ही दे सकते है लेकिन वो भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द हो जाएगा क्योंकि यह हमारे संविधान के मूल भावना से मेल नहीं खाती, या अगर कर भी दिए तो इसकी बहुत कम संभावना है कि हमारा शासन हमेशा चलते ही रहेगा क्योंकि कभी भी जनता अगर किसी कुशासन या किसी दुस्प्रचार में फस कर नाम मात्र भी नाराज होगी तो हमारा तख्ता वोट के माध्यम से पलट देगी। फिर दूसरा दल हमारे सारे किए धरे पर पानी फेर सकता है और फिर हम इंतजार करते रह जाएँगे दो तिहाई बहुमत पाने का और दुबारा संविधान संसोधन का। इन सब स्थिति में किसी का भी भला न होगा। बस भला होगा तो उनका जो सत्ता के माध्यम से लाभ कमाना चाहते है और वे जनता को ठग-ठग कर सपने दिखाकर सता में आते-जाते रहेंगे। लेकिन हमलोग स्वप्न ही देखते रह जाएँगे।
       अतः इसके लिए हमे एक समग्र क्रांति की आवश्यकता है जिसमें सशस्त्र एवं सामाजिक क्रांति दोनों शामिल हो। हमें लोगों को इस क्रांति के लिए तैयार करना होगा। इसके अलावा भी हम लोगों को चौतरफा प्रयास करना होगा। जैसे सशस्त्र क्रांति के साथ-साथ अपने लोगों को शाशन पद्धति (संसद) में भी घुसपैठ कराना ताकि अपनी आवाज उठती रहे, और कुछ बचाव की भी संभावना बने। साथ-साथ अपने विचारधारा के लोगो को हरेक क्षेत्रो में भेजना मसलन पुलिस-प्रशासन, सेना तथा शिक्षा क्षेत्र में ताकि वे अपने एजेंडे को गुप्त रूप से लागु करते रहे और क्रांतिकारियों की मदद कर सके। इनमे भी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपनी इस क्रांति की विचारधारा को संपूर्ण सेना और पुलिस और जनता में तेज गति से फैलाते रहना है ताकि समय आने पर हमे उनलोगों द्वारा पूरी मदद मिल सके, और जब ये सब हमारे आंशिक नियंत्रण में भी आने लगेंगे तो हमारी राह आसान बनती जाएगी, क्योंकि ये सारा सिस्टम इन नेताओ के बदौलत नहीं बल्कि इन्हीं नौकरशाह इत्यादि लोगो द्वारा ही संचालित होती है।
        लेकिन यह सब तो तभी होगा न जब अपना एक मजबूत वैचारिक आधार हो। बिना किसी वैचारिक आधार के यह हिंदू राष्ट्र कपोल कल्पना ही साबित होगा। आखिर कैसा होगा हमारा हिंदू राष्ट्र। उसका कैसा प्रारूप होगा। उसका कैसा संविधान होगा। उसमे मौजूदा अल्पसंख्यकों एवं दलितों की क्या स्थिति होगी। हमारी आर्थिक व्यवस्था कैसी होगी। हमारा न्यायतंत्र कैसा होगा। बिना इन सब प्रश्नों के उचित समाधान खोजे बिना किसी भी प्रकार के राष्ट्र की स्थापना करना मुर्खता ही होगी। अतः क्रांति के शुरुआत करने साथ ही इन सब का उचित उत्तर खोजने का कार्य भी शुरू करना होगा। वरना ऐसा होगा कि हमारा राज्य क्रांति तो सफल हो जाएगा लेकिन प्रसाशनिक कौशल के अभाव में हमे उन्ही अधिकारीयों की मदद लेनी पड़ेगी जिनके खिलाफ हम लड़ते आए है तथा जिन्होंने सदा भिन्न-भिन्न उपायों से हमारे आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया हो। ये वास्तव में हमारे लिए एक शर्मनाक स्थिति होगी। और ये बताने की बताने की जरूरत नहीं है कि अंग्रेजो के जाने के बाद हमारा देश उसी का दुष्परिणाम भोग रहा है। आजादी के बाद भी हमे वहीं सिस्टम अपनाना पड़ा जो अंग्रेजो ने हम पर शासन करने के लिए बनाई थी। हमे उन्हीं अधिकारीयों की सेवाए लेनी पड़ी थी जिन्होंने कभी क्रांतिकारियों एवं आजादी के समर्थको के प्रति सहानुभूति न रखी थी। हमे वही न्यायतंत्र अपनाना पड़ा जो अंग्रेजो ने हम गुलाम भारतीयों का न्याय करने के लिए बनाया था, और वह अभी भी वैसे ही रूप में चल रहा है, न नौकरशाही का रूप बदला है न न्यायतन्त्र का। और इसीलिए हमारे ही देश में हिंदी उपेक्षित है, हिंदू उपेक्षित है और सच कहे तो पूरा गरीब हिंदुस्तान उपेक्षित है। अतः क्रांति कार्य और अपना प्रशासनिक ढांचा विकसित करना दोनों साथ-साथ चलना चाहिए जिससे कि हम दुसरो से उधार न लेकर अपना बना बना-बनाया ढांचा विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर सके।
       लेकिन इन सबमे भी सबसे पहले समस्त हिन्दुओं का समर्थन पाना सुनिश्चित करना होगा और इसके लिए, हिंदुओ में एकता लाने के लिए हिंदुओ के मौजूदा विवाद हल करने ही होंगे, खास कर जाति-पाति का विवाद। जब हम हिंदू राष्ट्र की स्थापना करने जा रहे है तो हमे समस्त हिंदुओ को ध्यान रखना पड़ेगा, और इसके लिए इस समाज में मौजूद गैर बराबरी को पटना होगा, ऊँच नीच के भाव को खत्म करना होगा।और जब तक यह मौजूदा जाति व्यवस्था बना रहता है यह संभव नहीं। जाति सनातन नहीं है, सनातन तो एकमात्र केवल परमात्मा ही है।जाति हमी लोगों ने इसी धरती पर आकर बनाई है अतः हमे मौजूदा परिस्थितियों में सच्चाई स्वीकार कर जाति व्यवस्था जो जन्मना है उसे खत्म करना चाहिए और इसे कर्मणा लागु करना चाहिए, लेकिन इसके लिए सभी वर्गो का समर्थन भी प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए  चाहे वो ब्राम्हण हो या शुद्र। सभी मिलकर ही नया सिस्टम बना सकते है। लेकिन फिर भी यदि कोई यह सोचता है कि मौजूदा असमानता को बनाए रखते हुए ही हम राज्य क्रांति करें तो, या तो वह मुर्ख है या स्वार्थी।
      हमे निश्चित ही एक ऐसा सिस्टम बनाना होगा जिसमें सभी हिंदू एक समान हो तथा जो कोई भी हमारे धर्म में प्रवेश करने को इच्छुक हो उनको भी अपना कर समाज में उसको पुर्णतः बराबरी का दर्जा मिले। सभी हिंदू एक समान हो मतलब समाज में सभी एक दुसरे से समान व्यवहार कर सके मसलन शादी, भोजन, इत्यादि। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात शादी की ही है, हिंदू समाज के सभी लोग बिना जाती देखे शादी करे या यो कहे तो जाति व्यवस्था पूरी तरह कर्म के आधार पर होने से ये अपने आप होने लगेगी, नहीं तो मौजूदा व्यवस्था तो और नई-नई जातियों को बढ़ावा देने वाला है। मान लीजिए कोई मुसलमान सनातन धर्म से प्रभावित हो सनातन धर्म को अंगीकार कर लेता है तो इस मौजूदा जाति व्यवस्था में उससे कौन अपनी बेटी का ब्याह करेगा। जब एक हिंदू ही किसी अन्य हिंदू से शादी-ब्याह के रिश्तो में सकुचाता हो तो वह अपनी संतान का विवाह किसी धर्मपरिवर्तित व्यक्ति से कैसे कर सकता है। समाज में इतनी संकीर्णता व्याप्त होंने से अंततः वह पुनः सनातन धर्म छोड़ सकता है अन्यथा वह अपने ही जैसे लोग की खोज करेगा जो उसी तरह मुसलमान से हिंदू बने है जो बहुत दुष्कर कार्य है नहीं तो सबके लिए प्रेम विवाह भी करना आसान नही है। अतः इस समाज के मानसिकता को चेंज किए बिना हिंदू धर्म में एकता नहीं आ सकती और न ही हम हिंदुओ का पुनरोद्धार हो सकता है। कितनी शर्म की बात है न कि हम किसी हिंदू लड़की से ही शादी नहीं कर सकते, केवल अलग जाति होने के कारण, इसमें एक सवाल यह उठता है कि क्या यह प्रथा सनातन है, मतलब आदिकाल से चली आ रही है। तो इसका उत्तर बिलकुल भी न में होगा। क्योंकि जब शक और हुण जो एक बर्बर जातिया थी को सनातन धर्म में किस प्रकार मिलाया गया। हमारे लोगों ने अपनी पुत्रियों को उनसे ब्याहा और वह समाज से इस प्रकार घुल मिल गए कि आज कोई नहीं बचा है जो यह कह सके कि हमारे पूर्वज शक या हुण थे। लेकिन यह घोर रुढ़ीबद्धता आई कहा से। यह निश्चित ही हमारी लंबी गुलामी की देन है।
        कश्मीर के बारे में एक कथा इस प्रकार है कि 14वी सदी में वहाँ के सेनापति ने सनातन धर्म अपनाना चाहा था तो वहाँ के तथाकथित ब्राम्हण विरोध करने लगे। तो उसने फैसला किया किया कि सुबह के समय जिस धर्म के व्यक्ति को पहले देखूंगा या सुनुंगा उसी धर्म को अपना लूँगा। उसने सुबह-सुबह आजान की आवाज सुनी और मौलवी से भेट कर इस्लाम कबूल कर लिया।और बाद में वही शासक बन बैठा फिर शुरू हुआ तलवार के बल पर धर्म परिवर्तन का खेल। कल तक जो सनातन धर्म अपनाने के लिए तैयार था वही आज उन सनातनियों के लिए दुश्मन बन गया था और तब से धर्म परिवर्तन होते होते आज पूरा कश्मीर घाटी हिंदुओ से खाली होने के कगार पर है।
      उसी समय के आसपास की एक और घटना का वर्णन करता हूँ। हरिहर और बुक्का नाम के दो भाई थे। दोनों को बल पूर्वक मुसलमान बनाया गया था, लेकिन शंकराचार्य विद्यारण्य जी ने प्रयास करके उस समय के समाजिक धारा से विपरीत चलते हुए उनका शुद्धिकरण करके फिर से हिंदू बना दिया और बाद में उन्हीं के नेतृत्व में महान विजयनगर सम्राज्य की स्थापना हुई जो लगभग 200 सालो तक चली।
       इसीलिए हिंदुओ के  एकता एवं भलाई के लिए इन कुरीतियों को भी खत्म करने का प्रयास करना होगा। अगर बिना ये सब कुरीतियों के खत्म किए हिंदू राष्ट्र बना भी लिए तो यह अस्थाई होगा। हमे कुरूतियों को इसलिए नहीं खत्म करना होगा कि इससे हिंदू राष्ट्र बनने में बाधा उत्पन्न हो रहा है या यह हिंदूओ की एकता के लिए सही नहीं है। बल्कि यह तो हर स्थिति में समाज के लिए एक अभिशाप की तरह है, एक ऐसा राज्य जहाँ समाज के अधिकांश भाग अपने को शोषित या अपमानित महसूस करें यह किसी के लिए व्यवहारिक तौर पर ठीक नहीं है। नेपाल तो पुर्णतः हिंदू राष्ट्र था, लेकिन वहाँ की जनता ने क्यों नकार दिया वह केवल राजशाही हटाती और मौजूदा लोकतंत्र में भी हिंदू राष्ट्र को बनाए रखती।
      लेकिन वही की जनता ने इसे क्यों ख़ारिज कर दिया। क्योंकि वहाँ हिंदुत्व के नाम पर जनता का शोषण किया जा रहा था। पहले जब राणाशाही थी तो वहाँ छुआ-छुत को क़ानूनी मान्यता प्राप्त थी तथा जो इसे नहीं पालन करता था उसे दंड भी मिलता था, बाद में राजशाही आया तो यह कानून हटा लेकिन दलितों की स्थिति तब भी नहीं सुधरी आज से दस वर्ष पहले अगर कोई दलित किसी दुकान पर कुछ खाता-पिता था तो उसे खुद ही प्लेट साफ करना होता था।कितनी शर्मनाक स्थिति थी उस हिंदू राष्ट्र में जहाँ एक हिंदू, दुसरे हिंदू का शोषण करना अपना जन्मना अधिकार समझता था। क्या हम ऐसा ही हिंदू राष्ट्र का सपना देख रहे है?
       अतः एक आदर्श हिंदू राज्य की स्थापना हेतु हमे समग्र क्रांति की आवश्यकता पड़ेगी।
       इसके आलावा भी हमारा हिंदू राष्ट्र बने या न बने लेकिन इस मौजूदा सामाजिक स्थिति को तो चेंज करना ही होगा। अतः सभी भाई जो हिंदू जागृति में लगे है उनको मेरा सलाह है कि वे अपने आस-पास मौजूद समाजिक विषमता को खत्म करने  का प्रयास जरुर करें। इसी में हमारा स्थाई और भव्य हिंदू साम्राज्य का बिज छुपा हुआ है।
।।जय हिंद।।
।।भारत माता की जय।।

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

कैसे मिली आजादी?

1944 में आजाद हिंद फ़ौज हार चुकी थी, लड़ाई खत्म हो चुकी थी हमारे आजादी के सिपाही जो जिंदा बच गए थे उनको बंदी बना कर लाया गया। फैसला लिया गया कि इन सभी सिपाहियों को लालकिला में खुला कोर्ट मार्सल करके फासी पर लटका दिया जाए जिससे हमारी सेना (उस समय भारतीय सेना में अधिकांश भारतीय जवान ही थे) का मनोबल और बढ़ जाएगा।
लेकिन उस समय हमारे देश के वे तथाकथित नेता क्या कर रहे थे?
जब लड़ाई चल रही थी तो अंग्रेजो ने प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया था, फारवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओ को गिरफ्तार कर लिया गया था और चारो ओर यह प्रोपगैडा फैला दिया था कि जापानियों ने भारत पर आक्रमण कर दिया है जिससे जनता एवं साधारण सैनिक भुलावे रहे।©आलोक
लेकिन ये उस समय के हमारे तथाकथित नेता सुभाष चंद्र बोस से अपनी पुरानी दुश्मनी का बदला निकाल रहे थे। उनलोगों ने जरा भी राष्ट्रिय हित का ध्यान न रखते हुए उनका समर्थन करना और जनता द्वारा उनके समर्थन में आंदोलन छेड़ना तो दूर, 1942 के कुछ महीनों में नेहरु खुले मंच से घोषणा करते थे कि "मेरी इच्छा और क्षमता है कि इन जापानियों से लड़ने के लिए लाखो गुरिल्ले तैयार किए जाए", क्या नेहरु को वास्तविकता नहीं पता थी, ये वही नेहरु थे जिनकी सरकार ने आजादी के बाद देश में सेना को बनाए रखने को ही गैर जरूरी ठहरा दिया  था, वो तो भला हो चीन का जिसके आक्रमण के कारण भारत के पागल नेता संभल गए वरना कुछ ही समय बाद हम 1965 में पाकिस्तानके गुलाम होते। ऐसे व्यक्ति द्वारा ऐसा बयान क्या दर्शाता है (जो सेना को ही गैर जरूरी समझते हो लेकिन सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ ऐसी बयानबाजी)। उस समय आम सैनिक को यह सुन कर क्या लगा होगा? वे इतना इतना थोड़े जानते होंगे कि वास्तविकता क्या है और गलत क्या है सही क्या है। उस अंग्रेजो ने अंग्रेजो ने ऐसे-ऐसे नेताओ का भरपूर उपयोग किया. एक अज्ञेय नामक साहित्यकार थे, वे तो युद्ध मैदान तक पहुच कर सैनिको की हौसला अजफाई कर रहे थे तथाकथित जापानियों के खिलाफ लड़ने के लिए, ऐसे ही कई जाने-माने और प्रसिद्द व्यक्तियों का अंग्रेजो ने भरपूर इस्तेमाल किया. 
लेकिन जब यह बात युद्ध खत्म होने बाद आम जनता को पता चला कि यह युद्ध अंग्रेजो और आजाद हिन्द फ़ौज के बिच था, तथा नेता जी हमारे आजादी के लिए ही लड़ रहे थे और उन्हें अपने ही देश के जवानो ने हरा दिया तो वह पूरी तरह इस तथाकथित भारतीय सेना और अंग्रेजो के खिलाफ आक्रोशित हो गई। जगह-जगह उग्र प्रदर्शन होने लगे। सेना का कोई भी जवान के समाज के सामने आने पर उन पर ताने कसे जाने लगे। लोगो ने उनलोगों को समाज में मुँह छिपाने लायक भी नहीं छोड़ा। माताएँ बहने भी नपुंसक कहकर छेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी। इन सब परिस्थियों से सेना में अत्यंत क्षोभ पैदा होने लगी एवं खुद के इस कुकृत्य के लिए शर्मिदंगी महसूस होने लगी।©आलोक 
इन परिस्थितियों में तो जवाहरलाल नेहरु जैसे सुविधापरस्त नेता समाज को दिखाने के लिए फिर से वकालत का चोला पहन इन जवानों के पैरवी में उत्तर आए लेकिन वे उस समय कहाँ थे जब ये जवान सीमा पर अपने देश को आजाद कराने के लिए अंग्रेजो से संघर्ष कर रहे थे, तब वे उनको हत्तोसाहित करने में लगे थे।
काश ये समाज उसी समय जाग्रत हो गया होता तो सेना भी उसी समय ही जागृत हो गई होती और एक बार फिर 1857 जैसा दृश्य उत्त्पन हो जाता,  युद्ध के मैदान में ये सैनिक अंग्रेजो की पाला छोड़ कर इन सैनिकों के साथ मिल जाते तो ये मुठ्ठी भर अंग्रेज हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाते क्योंकि उनकी सारी ताकत तो द्वितीय विश्युद्ध में लगी हुई थी। 1857 में तो ये समय पर सवधान होने, अपनी गोरी पलटन को समय पर बुलाने और सिखों एवं चंद राजाओ के देशद्रोह के कारण अपना राज्य बचाने में सफल हो गए थे लेकिन अबकि बार समय क्रांतिकारियों के पूरी तरह अनुकूल था अगर ये भारतीय सिपाही विद्रोह कर देते तो अंग्रेजो का तो पुरे देश में कत्लेआम ही मच जाता और हमारा देश क्षण भर में स्वतंत्र हो जाता जिसके पहले राष्ट्राध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ही होते।
आखिर नेता किसे कहते है? जब देश के लिए अनुकूल समय आ रहा हो तो उस परिस्थितियों में समाज को जगाना और लड़ने के लिए खड़ा करना ही तो नेता का कर्तव्य होता है वरना जब-जब जनता बिना किसी नेतृत्व के स्वतः स्फूर्त हो कर जागती है तो सफलता कम लेकिन अराजकता ज्यादा फैलती है और उस बेला में कुछ स्वार्थी लोग श्रेय लेने की होड़ में लग जाते है बजाय कि एक सशक्त नेतृत्व देने के। और इसी मर्म को असली नेता सुभाष जी ने समझा और भिन्न-भिन्न देशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों में देशभक्ति की भावना भर कर लड़ने के लिए तैयार किया और देखते-देखते 40000 सेना वाली एक फ़ौज तैयार करके अंग्रेजो से भीड़ गए लेकिन क्या वे भी केवल अपने 40000 सेना से 20 लाख सेना वाली को जितने की उम्मीद कर रहे थे। कहीं न कहीं उनके मन में यह जरुर रहा होगा कि  भारतीय सेना अबकि बार भी 1857 की तरह हमारा साथ देगी और थोड़ा-बहुत जापान की सहायता पर निर्भर थे।
लेकिन हाय उनको क्या मालूम था कि जो लड़ाई हम देश के बाहर रह कर, कर रहे है उसी लड़ाई को अपने देश में ही समर्थन नहीं मिलेगा और इसके जिम्मेदार निश्चित रूप से हमारे देश के उस समय के मौजुदा नेता थे। उनके तो एक इशारे पर पूरा देश लड़ने को तैयार बैठा था लेकिन इन अहिंसा के पुजारियों या कायरो ने इन लोगो के समर्थन में एक वाक्य भी नहीं बोला, यहाँ तक कि सुभाष बाबु ने इन लोगो का समर्थन पाने के लिए सभी आपसी मतभेद भुलाकर गाँधी जी राष्ट्रपिता का संबोधन तक दे डाला।
लेकिन इनलोगों ने जनता को जगाने का कार्य नहीं किया बल्कि जनता के स्वतः स्फूर्त होने पर अपनी सुविधापरस्त राजनीती का नमूना जरुर दिखा दिया।
45 दिन चले कोर्ट मार्सल में अंग्रेजो ने अपने चमचों(नेहरु) की सारी दलीले ठुकरा कर आजाद हिन्द फ़ौज के सेनानियों को फांसी का सजा सुना दिया। फटी वर्दी पहने, आधा पेट भोजन किये, बुखार से तपते, बैलगाड़ियों में सामान ढोते और मामूली बन्दूक हाथों में लिये बहादूरी के साथ "भारत माँ की आजादी के लिए लड़ने वाले "आजाद हिन्द सैनिकों" को हराकर एवं बन्दी बनाकर लाने वाले ये भारतीय जवान ही तो थे, जो "महान ब्रिटिश सम्राज्यवाद की रक्षा के लिए" लड़ रहे थे! अगर ये जवान सही थे, तो देश की जनता गलत थी; और अगर देश की जनता सही थी, तो फिर ये जवान गलत थे! दोनों ही सही नहीं हो सकते। सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रुप लिया, फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रुप में फूटकर बाहर आने लगा। इन सब परिस्थियों को देखते-समझते हुए अंग्रेजो ने उन सबकी फ़ासी रद्द कर दी। लेकिन अब सैनिको की चेतना धीरे-धीरे जागने लगी थी वे किसी भी हालत में अंग्रेजो की गुलामी स्वीकार करने की स्थित में नहीं रह गए थे। भारत के प्रत्येक देशी सैनिक के दिल में देश के प्रति कुछ-कुछ होने लगा और आजाद हिन्द फौज द्वारा भारत की स्वतंत्रता के लिए शुरू किये गये सशस्त्र संघर्ष से प्रेरित होकर रॉयल इंडियन नेवी के भारतीय सैनिकों ने 18 फरवरी 1946 को एचआईएमएस तलवार नाम के जहाज से मुम्बई में अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध मुक्ति संग्राम का उद्घोष कर दिया। उनके क्रान्तिकारी मुक्ति संग्राम ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की। नौसैनिकों का यह मुक्ति संग्राम इतना तीव्र था कि शीघ्र ही यह मुम्बई से चेन्नई, कोलकात्ता , रंगून और कराँची तक फैल गया। महानगर , नगर और गाँवों में अंग्रेज अधिकारियों पर आक्रमण किये जाने लगे तथा कुछ अंग्रेज अधिकारियों को मार दिया गया। उनके घरों पर धावा बोला गया तथा धर्मान्तरण व राष्ट्रीय एकता विखण्डित करने के केन्द्र बने उनके पूजा स्थलों को नष्ट किये जाने लगा । स्थान-स्थान पर मुक्ति सैनिकों की अंग्रेज सैनिकों के साथ मुठभेड होने लगी।
लेकिन आप क्या सोचते है? क्या ऐसे समय में इन गद्दार नेताओं ने इन आजादी के दीवाने का साथ दिया? नहीं-नहीं, ऐसा सोचना भी भयंकर भूल होगी चूँकि देशद्रोहिता इनके रगों में खून बन कर दौड़ती थी, इसलिए इन्होंने उन सैनिको का साथ देना, समर्थन देना तो दूर इन लोगो ने उनका विरोध करना शुरू कर दिया। नौसैनिकों के मुक्ति संग्राम की मौहम्मद अली जिन्ना ने निन्दा किया व जवाहरलाल नेहरू ने अपने को नौसैनिक मुक्ति संग्राम से अलग कर लिया। मोहनदास जी गांधी जो उस समय पुणे में थे तथा जिन्हें इंडियन नेवी के मुक्ति संग्राम से हिंसा की गंध आती थी , उन्होंने नेवी के सैनिकों के समर्थन में एक शब्द भी नहीं बोला, अपितु इसके विपरीत उन्होंने वक्तव्य दे डाला कि - "यदि नेवी के सैनिक असन्तुष्ठ थे तो वे त्यागपत्र दे सकते थे।"
क्या अपने देश की स्वतंत्रता के लिए उनका मुक्ति संग्राम करना बुरा था? जो लोग देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों पर खेलते थे , जो लोग कोल्हू में बैल की तरह जोते गये, नंगी पीठ पर कोडे खाए, भारत माता की जय का उद्घोष करते हुए फाँसी के फंदे पर झुल गये क्या इसमें उनका अपना कोई निजी स्वार्थ था? इंडियन नेवी के क्षुब्ध सैनिकों ने राष्ट्रीय नेताओं के प्रति अपना क्रोध प्रकट करते हुए कहा कि -  'हमने रॉयल इंडियन नेवी' को राष्ट्रीय नेवी में परिवर्तित कर दिया है, किन्तु हमारे राष्ट्रीय नेता इसे स्वीकार करने को तैयार नही है। इसलिए हम स्वयं को कुण्ठित और अपमानित अनुभव कर रहे है। हमारे राष्ट्रीय नेताओं की नकारात्मक प्रतिक्रिया ने हमको अंग्रेज नेवी अधिकारियों से अधिक धक्का पहुँचाया है।'
हमारे इस भारतीय राष्ट्रीय नेताओं के विश्वासघात के कारण नौसैनिको का मुक्ति संग्राम हालाँकि कुचल दिया गया, लेकिन इसने ब्रिटिस साम्राज्य की जड़े हिला दी और अंग्रेजों के दिलों को भय से भर दिया। अंग्रेजों को ज्ञात हो गया कि केवल गोरे सैनिको के भरोसे भारत पर राज नहीं किया किया जा सकता , भारतीय सैनिक कभी भी क्रान्ति का शंखनाद कर 1857 का स्वतंत्रता समर दोहरा सकते है और इस बार सशस्त्र क्रान्ति हुई तो उनमें से एक भी जिन्दा नहीं बचेगा , अतः अब भारत को छोडकर वापिस जाने में ही उनकी भलाई है ।©आलोक
तत्कालीन ब्रिटिस हाई कमिश्नर जॉन फ्रोमैन का मत था कि 1946 में रॉयल इंडियन नेवी के विद्रोह (मुक्ति संग्राम ) के पश्चात भारत की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई थी । 1947 में ब्रिटिस प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने भारत की स्वतंत्रता विधेयक पर चर्चा के दौरान टोरी दल के आलोचकों को उत्तर देते हुए हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा था कि- 'हमने भारत को इसलिए छोडा , क्योंकि हम भारत में ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे थे । '(दि महात्मा एण्ड नेता जी , पृष्ठ -125 , लेखक - प्रोफेसर समर गुहा) नेताजी सुभाष से प्रेरणा प्राप्त इंडियन नेवी के वे क्रान्तिकारी सैनिक ही थे जिन्होंने भारत में अंग्रजों के विनाश के लिए ज्वालामुखी का निर्माण किया था। इसका स्पष्ट प्रमाण ब्रिटिस प्रधानमंत्री 'लार्ड' एटली और कोलकात्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश 'पी. बी. चक्रवर्ती' जो उस समय पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल भी थे के वार्तालाप से मिलता है। जब चक्रवर्ती ने एटली से सीधे - सीधे पूछा कि ' गांधी का अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन तो 1947 से बहुत पहले ही मुरझा चुका था तथा उस समय भारतीय स्थिति में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे अंग्रेजों को भारत छोडना आवश्यक हो जाए , तब आपने ऐसा क्यों किया?' तब एटली ने उत्तर देते हुए कई कारणों का उल्लेख किया, जिनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारण 'इंडियन नेवी का विद्रोह (मुक्ति संग्राम) व नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कार्यकलाप थे जिसने भारत की जल सेना, थल सेना और वायु सेना के अंग्रेजों के प्रति लगाव को लगभग समाप्त करके उनकों अंग्रेजों के ही विरूद्ध लडने के लिए प्रेरित कर दिया था।' अन्त में जब चक्रवर्ती ने एटली से अंग्रेजों के भारत छोडने के निर्णय पर गांधी जी के कार्यकलाप से पडने वाले प्रभाव के बारे मेँ पूछा तो इस प्रश्न को सुनकर एटली हंसने लगा और हंसते हुए कहा कि ' गांधी जी का प्रभाव तो न्यूनतम ही रहा।'
एटली और चक्रवर्ती का वार्तालाप निम्नलिखित तीन पुस्तकों में मिलता है-
1. हिस्ट्री ऑफ इंडियन इन्डिपेन्डेन्ट्स वाल्यूम - 3 , लेखक- डॉ. आर. सी. मजूमदार।
2. हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस , लेखिका - गिरिजा के. मुखर्जी ।
3. दि महात्मा एण्ड नेता जी , लेखक- प्रोफेसर समर गुहा।
भाइयों लेकिन इन सबके बावजूद आजद हिंद फ़ौज के इन आजादी के दीवानों को आजादी के बाद क्या मिला। उनके उपर आंतकवादी का ठप्पा लगा कर सम्मान पूर्वक जीने का हक को भी छिनने का प्रयास किया गया। क्या आप सोच सकते है इस बारे में। हाँ ये बिलकुल सत्य है।
जी हाँ मित्रों, आज की पीढ़ी ये सुनकर हिल जायेगी की कांग्रेस की नजर मे इस देश के लिए अपना बलिदान देने वाले मतवाले आज़ाद हिंद फ़ौज के फौजी गद्दार है ।ये संसद के रिकार्ड मे दर्ज है। जब डॉ श्यामा प्रशाद मुखर्जी ने नेहरु से आजाद हिंद फ़ौज के पूर्व सैनिको को भारतीय सेना के मानदंड पर पेंशन और भारतीय सेना अपने सैनिको को रिटायर के बाद जो सुविधा देती है वो सब देने का प्रस्ताव रखा था, तो नेहरु ने कहा की "मै आजाद हिंद फ़ौज को मान्यता नही देता , ये एक आतंकवादी कृत्य था . मै किसी निजी सेना बनाने के खिलाफ हूँ भले ही उसका इस्तेमाल देश के लिए हो, इसलिए मै ऐसे किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार नही करूँगा।" मित्रों, ये संसद के रिकार्ड मे है। हाय नेहरु आपको जरा भी लज्जा नहीं आई इन आजादी के परवानो को आतंकी ठहराने में, आखिर आप किस मुँह से लालकिला पर गए थे इन आंतकवादियों के पैरवी करने।
सारा इतिहास इन देशद्रोहियों के कारनामों से भरा पड़ा है अगर जरूरत है तो इनको खोज कर के जनता के सामने प्रस्तुत करने की। इन लोगो ने 60 सालो से सत्ता में रहकर मिडिया को मनमुताबिक चलाया। लेकिन अब सोसल मिडिया का जमाना आ गया है और सच्चाई ज्यादा देर तक छुप कर नहीं रह सकती।
written by Alok pandey